Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 429
________________ द्वार ८८-८९ ३६६ -20202016300 • मूलगत 'मण' शब्द समुदाय का परिचायक होने से उसका अर्थ होता है ‘मन:पर्यवज्ञान' । ‘परमावधिज्ञान' में परम व अवधि दो शब्द हैं। परम का अर्थ है प्रकृष्ट । जिस ज्ञान के उत्पन्न होने के बाद केवलज्ञान अवश्यंभावी हो वह ज्ञान प्रकृष्ट है। अवधि अर्थात् मूर्त्तद्रव्य का अवबोधक ज्ञान विशेष । • जंबूस्वामी के सिद्धिगमन के पश्चात् पूर्वोक्त १० वस्तुओं का अभाव हुआ। प्रश्न केवलज्ञान और सिद्धिगमन दोनों के विच्छेद का कथन अनावश्यक है, कारण किसी एक के विच्छेद से दूसरे का विच्छेद होना सिद्ध है। जैसे केवलज्ञान के विच्छेद से सिद्धिगमन का विच्छेद या सिद्धिगमन के विच्छेद से केवलज्ञान का विच्छेद स्वत: सिद्ध है। अत: दोनों के विच्छेद का कथन क्यों किया? उत्तर–दोनों का ग्रहण इस बात का द्योतक है कि केवली निश्चित सिद्ध होता है व जो सिद्ध होता है वह निश्चित केवली होता है। • निम्न तीन वस्तुयें १४ पूर्वधर स्थूलभद्र स्वामी के स्वर्गगमन के पश्चात् विच्छिन्न हुईं : १. प्रथम संघयण, २. प्रथम संस्थान व ३. अन्तर्मुहूर्त काल में १४ पूर्व के चिन्तन का अपूर्व क्षयोपशम। कहा है ____ 'प्रथम संघयण, प्रथम संस्थान व पूर्व का उपयोग ये तीनों ही पदार्थ श्रुतकेवली स्थूलभद्र स्वामी के स्वर्गगमन के पश्चात् विच्छिन्न हुए' ।। ६९३ ।। ८९ द्वार: क्षपकश्रेणि अणमिच्छमीससम्मं अट्ठ नपुंसित्थीवेयछक्कं च । पुंवेयं च खवेई कोहाईएवि संजलणे ॥६९४ ॥ कोहो माणो माया लोहोऽणंताणुबंधिणो चउरो। खविऊण खवइ संढो मिच्छं मीसं च सम्मत्तं ॥६९५ ॥ अप्पच्चक्खाणे चउरो पच्चक्खाणे य सममवि खवेइ। तयणु नपुंसगइत्थीवेयदुगं खविय खवइ समं ॥६९६ ॥ हासरइअरइपुंवेयसोयभयजुयदुगुंछ सत्त इमा। तह संजलणं कोहं माणं मायं च लोभं च ॥६९७ ॥ तो किट्टीकयअस्संखलोहखंडाइं खविय मोहखया। पावइलोयालोयप्पयासयं केवलं नाणं ॥६९८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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