________________
३७०
द्वार ८९
अन्यमतानुसार--पहले सोलह प्रकृतियों के क्षय की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, मध्य में आठ प्रकृतियों का क्षय होता है पश्चात् सोलह प्रकृतियों का सम्पूर्ण क्षय होता है। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण नोकषाय और संज्वलन चतुष्क = १३ प्रकृतियों का अन्तरकरण किया जाता है स्थापना इस प्रकार है अर्थात् कर्म को ऊपर नीचे दो भागों में विभक्त कर दिया जाता है। जिस प्रकृति का उदय होता है, उसकी प्रथम-स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और शेष प्रकृतियों की प्रथम स्थिति एक आवलिका प्रमाण रहती है। अन्तरकरण क्रिया के बाद आत्मा ऊपरवर्ती स्थितिगत नपुंसक वेद के दलिक को उद्वलनाकरण के द्वारा क्षय करना प्रारम्भ करता है। (नौंवे गुणस्थान में पहले नपुंसक वेद सत्ता में से नष्ट होता है अत: उसका सर्वप्रथम क्षय होना आवश्यक है। उसके क्षय की क्रिया आठवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही प्रारम्भ हो जाती है)। क्षय होते-होते जब नपुंसक वेद का पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तिम खण्ड सत्ता में शेष रहता है तब उसे गुणसंक्रम के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों में संक्रमित कर अन्तर्मुहूर्त में क्षय कर दिया जाता है।
नपुंसक वेद के उदय में क्षपक श्रेणी करने वाला आत्मा नपुंसक वेद की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निम्न स्थिति को भोगकर क्षय करता है किन्तु अन्य वेद में क्षपक श्रेणि करने वाला आत्मा एक आवलिका प्रमाण निम्न स्थिति को उदयगत प्रकृति में संक्रमित कर नपुंसक वेद का सर्वथा क्षय करता है। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त में स्त्रीवेद का भी क्षय हो जाता है इसके बाद हास्यादि छ: प्रकृतियों को एक साथ क्षय करना प्रारम्भ करता है। क्षय के प्रारम्भ में ही हास्यादि षट्क के दलिक (ऊपरवर्ती स्थितिगत) का पुरुषवेद में संक्रमण न करके संज्वलन क्रोध में संक्रमण करता है तथा अन्तर्मुहूर्त में इसे सत्ता में से पूर्णरूपेण नष्ट कर देता है।
जिस समय हास्यादि षट्क पूर्णरूपेण सत्ता में से नष्ट होता है उसी समय पुरुषवेद की बंध, उदय, उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और एक समय न्यून दो आवलिका प्रमाण काल में बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष सभी दलिकों का क्षय हो जाता है । पश्चात् पुरुषवेद का विच्छेद हो जाने से आत्मा अवेदी बन जाता है।
पुरुषवेद की बंध, उदय, उदीरणा का विच्छेद होने के तुरन्त बाद आत्मा संज्वलन क्रोध के नाश का प्रयत्न करता है। पुरुषवेद के उदय के विच्छेद काल से लेकर जहाँ तक संज्वलन क्रोध का रसोदय रहता है वह काल कार्यभेद से तीन भागों में विभक्त होता है
(i) अश्वकर्णकरणाद्धा-अपूर्व स्पर्धकों का रचनाकाल । जैसे घोड़े के कान प्रारम्भ में चौड़े व क्रमश: संकरे होते-होते अन्त में नुकीले होते हैं, वैसे ही क्रमश: अनन्तगुणहीन रसाणु वाली वर्गणाओं से अपूर्व स्पर्धकों की रचना इस काल में होने से यह अश्वकर्ण = घोड़े के कान, करणाद्धा = की तरह स्पर्धकों की रचना करने का काल है।
(i) किट्टीकरणाद्धा-कर्मप्रकृतिगत रस, प्रदेश आदि को घटाना, अल्पकरना किट्टी है। जिस काल में यह होता है, वह किट्टीकरणाद्धा कहलाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org