Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 437
________________ ३७४ द्वार ८९ किट्टी का वेदन समयाधिक आवलिका मात्र शेष रहता है। उस समय संज्वलन लोभ के बंध का विच्छेद, बादर-कषाय का उदय, उदीरणा का विच्छेद तथा नौंवे गुणस्थान का भी विच्छेद हो जाता है। फिर द्वितीय स्थितिगत सक्ष्म किड़ियों के दलिक को खींचकर प्रथम स्थिति बनाकर उसका वेदन करता है। उसका वेदन करने वाला आत्मा दसवें गुणस्थान में होता है। पूर्वोक्त तृतीय किट्टी की जो एक आवलिकायें शेष है, उन्हें वेद्यमान पर-प्रकृति में (सूक्ष्म-किट्टी में) स्तिबुक संक्रमण के द्वारा संक्रमाता है और प्रथम, द्वितीय किट्टी की जो आवलिका शेष रही थी उन्हें क्रमश: दूसरी, तीसरी किट्टी में डालकर भोगता है। लोभ की सूक्ष्म किट्टियों का वेदन करता हुआ दसवें गुणस्थानवर्ती आत्मा द्वितीय स्थिति में स्थित सूक्ष्म किट्टियों के दलिक को तथा समयोन दो आवलिका में बद्ध दलिक (जो सत्ता में शेष है) का प्रतिसमय स्थिति-घातादि के द्वारा क्षय करता है। क्षय का यह क्रम दसवें गुणस्थान के संख्याता भाग में से एक भाग शेष रहने तक चलता है (संख्यातवाँ भाग भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है) संज्वलन लोभ की स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा घटाकर सूक्ष्म संपराय के शेषकाल प्रमाण करता है। इसके आगे मोहनीय कर्म के स्थितिघातादि नहीं होते, शेष कर्मों के होते हैं। अपवर्तनाकरण के द्वारा अपवर्तित लोभ की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति का उदय, उदीरणा के द्वारा वहाँ तक वेदन करता है जबकि उसकी स्थिति सत्ता में समयाधिक आवलिका मात्र शेष रहती है। तत्पश्चात् उसकी उदीरणा नहीं होती । सत्ता में स्थितं उदयावलिका को केवल उदय के द्वारा दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में भोगकर क्षीण कर देता है। दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय अन्तराय यश: कीर्ति और उच्चगोत्र इन १६ प्रकृतियों का बंध एवं मोहनीय के उदय व सत्ता का विच्छेद होता है। तदनन्तर आत्मा क्षीण कषायी बन जाता है। बारहवें गुणस्थान में शेष कर्मों के स्थितिघातादि पूर्ववत् ही होते हैं। इनका क्रम बारहवें गुणस्थान के संख्यातवें भाग में से एक संख्यातवाँ भाग शेष रहता है तब तक चलता रहता है। उस समय ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, निद्रा २ एवं अन्तराय ५ = १६ प्रकृतियों के सत्तागत दलिक की स्थिति अपवर्तनाकरण के द्वारा घटाकर बारहवें गुणस्थान के काल प्रमाण की जाती है। मात्र निद्राद्विक की स्थिति एक समय न्यून होती है। अभी भी बारहवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है। इस समय पूर्वोक्त प्रकृतियों के स्थितिघातादि कार्य समाप्त हो जाते हैं। शेष प्रकृतियों के स्थिति घातादि प्रवृत रहते हैं। निद्राद्विक हीन पूर्वोक्त चौदह प्रकृतियों की उदय, उदीरणा तब तक होती है जब तक इनकी सत्ता समयाधिक आवलिका मात्र शेष रहती है। तत्पश्चात् उदीरणा समाप्त हो जाती है और सत्तागत दलिक का क्षीण कषाय के उपान्त्य समय तक केवल उदय द्वारा ही वेदन होता है। निद्राद्विक गसिप . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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