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प्रश्न- दर्शनाचार के अतिचार में शंका- कांक्षा और विचिकित्सा ये तीनों अतिचार आ चुके हैं । सम्यक्त्व के अतिचार के रूप में पुनः इनको ग्रहण करना पुनरुक्त नहीं होगा क्या ?
पाँच अणुव्रतों के अतिचार
१. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत
(i) अन्नपान व्यवच्छेद
उत्तर - दर्शनाचार के अतिचार में शंका आदि सामान्य विषयक हैं, जैसे, देव, गुरु अथवा धर्म के विषय में सामान्य रूप से शंका करना । धर्म सम्बन्धी फल के प्रति कांक्षा होना । साधु-साध्वी की निन्दा - घृणा करना । पर यहाँ शंका आदि तीनों ही पदार्थ विशेष से सम्बन्धित हैं, जैसे जीव के विषय में शंका करना । अन्य धर्मों की चाह करना । साधु विशेष की घृणा करना आदि। अतः पुनरुक्त दोष नहीं होगा ।
अपवाद
ये अतिचार व्यवहारनय से सम्यक्त्व को दूषित करते हैं । निश्चयनय से तो सम्यक्त्व के घातक
ही हैं ।। २७३ ॥
(ii) बंध
अपवाद
(iii) वध
अपवाद
(iv) अतिभारारोपण
(v) छविच्छेद
है
आलापजन्य परिचय होता है जो सम्यक्त्व को दूषित करता . ( इनके साथ एक स्थान में रहने से उनकी प्रक्रिया का परिचय होता है जिससे सम्यक् श्रद्धा डगमगाने की सम्भावना रहती है) ।
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द्वार ६
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इस व्रत के १. अन्नपानव्यवच्छेद, २. बंध, ३. वध, ४. अतिभारारोपण तथा ५. छविच्छेद ये पाँच अतिचार हैं। 1
क्रोध आदि के वश द्विपद या चतुष्पद जीवों के आहार- पानी का अन्तराय करने से प्रथमव्रत में अतिचार लगता है I
यदि पुत्र आदि को बुखार आ रहा हो, पढ़ता न हो, ऐसी स्थिति में आहार- पानी का अन्तराय करना पड़े तो दोष नहीं लगता क्योंकि इसमें हितबुद्धि है।
प्रबल कषाय के उदयवश द्विपद, चतुष्पद आदि को बाँधना अतिचार है ।
गाय, भैंस आदि पशुओं को तथा दासी- पुत्र, पुत्र-पुत्री आदि मनुष्यों को शिक्षा देने हेतु या विशेष परिस्थिति में नियन्त्रण हेतु बाँधना अतिचार नहीं है।
क्रोधवंश लकड़ी आदि से उन्हें मारना अतिचार हैं।
शिक्षा या नियन्त्रण हेतु मारना अतिचार नहीं है । द्विपद-चतुष्पद जीवों पर शक्ति उपरान्त भार लादना (क्रोधवश या लोभवश) अतिचार है ।
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क्रोधादिवश जीवों की चमड़ी या शरीर का छेदन करना अतिचार है। डंडे या चाबुक से शरीर की चमड़ी उधेड़ना भी दोष है।
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