Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 403
________________ ३४० विशेष - प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में पाँच महाव्रत होते हैं शेष बावीस तीर्थंकर के शासन में चौथे व पाँचवें महाव्रत को एक मानने से चार ही महाव्रत होते हैं। क्योंकि धर्म नियमों का प्रतिपादन तत्कालीन आराधक आत्माओं के स्वभाव के अनुरूप किया जाता है तथा आराधकों का स्वभाव काल-स्वभाव पर आधारित होता है । कालभेद से आत्मा तीन प्रकार के हैं - १. ऋजु जड़ २. वक्र जड़ और ३. ऋजु प्राज्ञ । द्वार ७४ १. ऋजु जड़ - ऋजु = सरल, जड़ = पूर्वापर के विचार से शून्य, मात्र दूसरों के कथनानुसार करने वाला । प्रथम तीर्थंकर के समय में ऐसे आत्मा होते हैं। उदाहरणार्थ ऋषभदेव परमात्मा के शासन के कुछ मुनि गौरी हेतु गाँव में गये। वापस लौटने में बहुत समय लगा। गुरु ने पूछा – महानुभाव ! आज गौचरी में इतना समय क्यों लगा ? सरलमना शिष्यों ने कहा- - गुरुदेव ! गौचरी जाते हुए आज हम नटों का नृत्य देखने लग गये थे। गुरु ने उपालंभ देते हुए कहा - राग- वृद्धि का कारण होने से साधु को नटों का नृत्य नहीं देखना चाहिये । शिष्यों ने गुरु आज्ञा शिरोधार्य की । दूसरे दिन गौचरी लाने में पुन: देर लगी। आने पर गुरु ने देरी का कारण पूछा। सरलता से शिष्यों ने बताया- - गुरुदेव ! आज हम नटी का नृत्य देखने लग गये थे । गुरु ने कहा – मैंने तुम्हें नृत्य देखने का मना किया था फिर तुम क्यों रुके ? सरल होने से शिष्य बोले- भगवन् ! आपने हमें नटों का नृत्य देखने का मना किया था, न कि नटी का । उनकी सरलता देखकर गुरु ने कहा - वत्स ! नट का नृत्य देखने का निषेध करने पर अति-राग का कारण होने से नटी का नृत्य देखना तो सुतराम् निषिद्ध है । तब शिष्यों ने कहा- अब नहीं देखेंगे। इस प्रकार के हैं ऋजु जड़ आत्मा । २. वक्र जड़-वक्र - कपट, जड़ = मूर्ख या अविवेकी, जो कपट और अविवेक दोनों से युक्त हो, वे वक्र जड़ हैं। जैसे भगवान महावीर के शासन के जीव । उदाहरण पूर्व की तरह । किन्तु इतना अन्तर है कि नट का नृत्य देखने का गुरु के द्वारा निषेध करने पर भी जब वे नटी का नृत्य देखकर आते हैं और गुरु उन्हें पूछते हैं, तब वे गुरु पर ही आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि आपने हमें नट का नृत्य देखने का ही मना किया था, न कि नटी का । इसमें हमारा दोष ही क्या है ? ३. ऋजु प्राज्ञ ऋजु = सरल, प्राज्ञ = पूर्वापर का चिंतन करने वाला। बावीस तीर्थंकरों के शासन के मुनि ऐसे होते हैं । दृष्टान्त पूर्ववत् किन्तु इतना अन्तर है कि नट का नृत्य देखने का गुरु द्वारा निषेध करने के बाद वे स्वयं समझ जाते हैं कि नटी का नृत्य भी मुनि को नहीं देखना चाहिये। इनकी प्रबुद्धता को देखते हुए उनके लिये चौथा और पाँचवाँ महाव्रत एक कर दिया गया। वे समझते हैं कि अपरिगृहीता स्त्री का भोग नहीं हो सकता, अतः चौथा व्रत पाँचवें व्रत में अन्तर्भूत हो जाता है । किन्तु प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होने से बहुत समझाने पर समझते हैं और भगवान् महावीर के साधु वक्र - जड़ होने से नियम का पालन करने में कमजोर पड़ते हैं । वे नियम में तर्क-वितर्क करके अधिक से अधिक अपवाद सेवन करने का प्रयास करते हैं। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर के शासन मुनिलोग यह न समझें कि भगवान ने चार महाव्रत बताकर स्त्री - सेवन की छूट दी है। इसलिए ब्रह्मचर्य महाव्रत, पाँचवें- अपरिग्रह महाव्रत से अलग बताया गया । ६४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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