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द्वार ३९
-विवेचन__इन्द्र द्वारा द्वाररक्षक की तरह नियुक्त देवता प्रतिहारी कहलाते हैं और उनके द्वारा करने योग्य कार्य प्रातिहार्य हैं। ये प्रातिहार्य आठ हैं:१. अशोक वृक्ष
- चारों ओर पत्तों से घिरे हुए, सदाकाल विकस्वर पुष्पों के झरते हुए पराग से आकृष्ट भौंरों के शब्द से शीतल कर दिये हैं नमस्कार करने वाले भव्यजनों के कर्णविवर जिसने, अति मनोहर एवं विशाल शालवृक्ष से सुशोभित ऐसा अशोक वृक्ष समवसरण
के मध्य में देव बनाते हैं। २. पुष्पवृष्टि
- अधोवृन्त एवं ऊपर मुखवाले, जलस्थल में उत्पन्न, सदा विकस्वर,
वैक्रियशक्ति से जन्य, पाँचवर्ण के पुष्पों की देव समवसरण में
जानुप्रमाण वृष्टि करते हैं। ३. दिव्यध्वनि
कानों में अमृत की तरह मधुर लगने वाली, अन्य सभी व्यापारों को छोड़कर अलग-अलग देश से सहसा भगकर आये हए. बडी उत्सुकता से चौकन्ने बने हरिण समूह से सुनी जाने वाली, सभी
को आनन्ददायिनी ऐसी “दिव्यध्वनि” देव करते हैं। ४. चामरयुगल
कमनीय केले के स्तंभ की तरह सरल तन्तुओं से युक्त सुन्दर चमरी गाय के बालों के समूह वाली, जातिवान अनेक रंगों वाले, अनुपमेय रत्नसमूह से निकलने वाली किरणों से सभी दिशाओं में इन्द्रधनुष की रचना करने वाली, सुवर्णमयदण्ड से रमणीय
ऐसी चामर की शोभा परमात्मा के दोनों ओर देव करते हैं। ५. सिंहासन
अत्यन्त चमकीली केशसटा से सुशोभित स्कंधों से युक्त तथा स्पष्ट दिखाई देने वाली तीक्ष्ण दाढ़ाओं से सजीव लगने वाले सिंह से अलंकृत, अनेकविध अनमोल रत्नों की किरणों से नष्ट कर दिया है अन्धकार के समूह को जिसने ऐसा अति मनोहर
सिंहासन परमात्मा के लिए देव बनाते हैं। ६.भामण्डल
संपूर्ण (१६०० किरणे) किरण मण्डल से अत्यन्त प्रखर, शरत्कालीन सूर्य की तरह अदर्शनीय, सहज देदीप्यमान तीर्थंकर परमात्मा के शरीर से, सूर्य के प्रकाश को ढकने वाले, महान् प्रभापटल को इकट्ठा करके परमात्मा के सिर के पीछे गोलाकार भामण्डल देव
बनाते हैं। ७. देवदुन्दुभि
जिनकी तीव्र ध्वनि से तीनों भुवन गूंज उठते हैं ऐसी दुन्दुभियाँ देवगण बजाते हैं।
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