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द्वार ६७
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करे। यदि जीवोत्पत्ति अधिक हो तो दोनों काल में अधिक बार भी वसति-प्रमार्जन करना चाहिये। यदि जीवों का उपद्रव बहुत अधिक हो तो अन्य वसति में या दूसरे गाँव में चला जाना चाहिये ।।५९४ ॥
मनोगुप्ति आदि तीन प्रकार की गुप्तियाँ हैं। गुप्ति अप्रशस्त योग से निवृत्ति एवं प्रशस्त योग में प्रवृत्ति रूप है ।।५९५ ॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से अभिग्रह के ४ प्रकार हैं। इनके भी निमित्त भेद से अनेक भेद हैं ।।५९६ ।।
-विवेचनकरण सप्तति
= मोक्ष के अर्थी मुनियों के करने योग्य सत्तर बातें।
प्राणातिपातविरति आदि मूलगुण के अस्तित्व में ही इनका अस्तित्व है। १. पिंडविशुद्धि = सजातीय व विजातीय अनेक द्रव्यों का एकत्र मिलन ‘पिण्ड' कहलाता
है। विशुद्धि आधाकर्मादि दोषरहित। अर्थात् ४२ दोषरहित आहार
पानी ग्रहण करना। समिति . = जिनाज्ञा के अनुसार चेष्टा-गमनागमन आदि करना। भावना
= 'अनित्य' आदि १२ भावना का चिन्तन करना। प्रतिमा
= अभिग्रह विशेष धारण करना। इन्द्रियनिरोध = इष्ट विषय में राग तथा अनिष्ट विषय में द्वेष न करना। प्रतिलेखना = चोलपट्टा आदि उपकरणों का जीवदया हेतु आगमानुसार
निरीक्षण करना। गुप्ति
= मुमुक्षु आत्मा द्वारा अपने योगों का निग्रह करना। ८. अभिग्रह = द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सम्बन्धी अनेक प्रकार के नियम रखना।
प्रश्न-'एषणा समिति' कहने से ही 'पिण्डविशुद्धि' आ जाती है तो अलग से पिण्डविशुद्धि की चर्चा करना व्यर्थ है ?
उत्तर-एषणा केवल 'पिण्ड' की ही नहीं होती परन्तु 'वसति' वस्त्र आदि की भी होती है अत: उनके लिये एषणा समिति आवश्यक है। पिण्डविशुद्धि का अलग से कथन यह बताने के लिये आवश्यक है कि मुनि को कारण से ही 'पिण्ड' का ग्रहण करना चाहिये, अथवा यह बताने के लिये कि आहार के बिना 'पिण्ड-विशद्धि' आदि 'करणसत्तरी' का पालन अशक्य है || ५६२ ॥ १. पिण्डविशुद्धि-दोषरहित आहार।
___ दोष = आधाकर्मि आदि १६ उद्गमदोष, धात्री आदि १६ उत्पादना दोष तथा शंकित आदि १० एषणा के दोष । कुल ४२ दोष हैं।
• उद्गमदोष –आहार बनाते समय गृहस्थ की ओर से लगने वाले दोष ।
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