________________
२५०
द्वार ६४
(२६) आहरणनिपुण
- ३. सूत्र का ज्ञाता, अर्थ का ज्ञाता। - ४. सूत्र का अज्ञाता, अर्थ का अज्ञाता ।
इसमें तीसरा भंग ग्राह्य है। - आहरण = दृष्टान्त, श्रोता की योग्यता के अनुरूप उदाहरणपूर्वक
वस्तु तत्त्व को समझाने वाले । – हेतु = कारण, इसके दो भेद हैं—१. कारक और २. ज्ञापक - वस्तु का उत्पादक कारण, जैसे घट का उत्पादक कारण कुंभार
(२७) हेतु-निपुण
(i) कारक
(ii) ज्ञापक
- वस्तु के ज्ञान का कारण, ज्ञापक कारण है, जैसे अंधकार में
घटादि का ज्ञान कराने वाला दीपक आदि वस्तु का ज्ञापक कारण
(२८) उपनय निपुण
(२९) नय-निपुण
(३०) ग्राहणा कुशल (३१) स्वसमयवित् (३२) परसमयवित्
(३३) गंभीर (३४) दीप्तिमान (३५) शिव (३६) सोम
दोनों प्रकार के हेतुओं द्वारा वस्तु तत्त्व को समझाने वाले। - उपनय = उपसंहार, प्रस्तुत विषय में उदाहरण को यथार्थ रूप
से घटाने में कुशल। - नय ज्ञान में निपुण होने से वस्तु की अनेक दृष्टियों से व्याख्या
करने वाले। - स्वीकृत-विषय का सांगोपाँग प्रतिपादन करने वाले। - स्वदर्शन के ज्ञाता। - अन्य दर्शनों के ज्ञाता। वाद-विवाद करते समय परपक्ष का ।
खण्डन कर सुखपूर्वक स्वपक्ष का स्थापन कर सकते हैं। - अतुच्छ स्वभाव वाले। - तेजयुक्त, किसी से अभिभूत न होने वाले। - क्रोधरहित अथवा जहाँ विचरण करे वहाँ सर्वत्र शान्तिकारक। - शान्तदृष्टि वाले।
इनके अतिरिक्त अन्य भी औदार्य, स्थैर्य आदि चन्द्रवत् निर्मल गुणों से अलंकृत, मूलगुण व उत्तरगुण से शोभित गुरु ही प्रवचन के सारभूत उपदेश को देने में योग्य हैं । गुणयुक्त गुरु का वचन घी से सींची हुई आग की तरह प्रभावशाली होता है, जबकि गुणहीन का वचन तैलहीन दीपक की तरह शोभा नहीं देता ।। ५४८ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org