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प्रवचन-सारोद्धार
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(ii) अप्रावरणा - मुहपत्ति, रजोहरण व ७ पात्रनियोगयुक्त।
(निर्वस्त्र) • अल्प उपधिधारी होने से ये विशुद्ध जिनकल्पी हैं। जिनकल्प का परिकर्म
परिकर्म = जिन के समान आचार स्वीकार करने की योग्यता अर्जित करना। परिकर्म करने के पश्चात् ही जिन कल्प स्वीकारा जा सकता है। इसके पाँच प्रकार हैं(i) तप - उपवास से लेकर यावत् छ: महीने तक का तप करते हुए
पीड़ित न बने तो ही जिनकल्प स्वीकारा जा सकता है। (ii) सूत्र - नौ पूर्व का ऐसा अभ्यास होना चाहिये कि पश्चानुपूर्वी से भी
उनका परावर्तन कर सके। (iii) सत्त्व - मानसिक स्थैर्य । भयजनक शून्यघर, श्मशान आदि में
कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ा रहे । उपसर्ग, परीषह आने पर भी
अक्षुब्ध रहे, ऐसा व्यक्ति ही जिन-कल्प स्वीकार कर सकता है। (iv) एकत्व - एकाकी विचरण करते हुए भी जो संयम से विचलित न बने,
वही जिन-कल्प स्वीकार कर सकता है। (v) बल
पाँव के एक अंगूठे पर चिरकाल तक खड़ा रहे, किंतु शरीर
और मन से जरा भी क्षुब्ध न बने, वही जिनकल्प स्वीकार कर
सकता है। इस प्रकार अभ्यास द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्ति का परीक्षण करने के बाद ही जिनकल्प स्वीकार करे ॥ ४९१-४९८ ।।
६१ द्वार:
स्थविर-उपकरण
एए चेव दुवालस मत्तग अइरेग चोलपट्टो उ। एसो चउदसरूवो उवही पुण थेरकप्पंमि ॥४९९ ॥ तिण्णि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । एतो हीण जहन्नं अइरेगयरं तु उक्कोसं ॥५०० ॥ पत्ताबंधपमाणं भाणपमाणेण होइ कायव्वं । जह गंठिमि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥५०१ ॥ पत्तगठवणं तह गुच्छगो य पायपडिलेहणी चेव।
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