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प्रवचन - सारोद्धार
४. जीवित आशंसा
५. काम - भोग आशंसा
काम = शब्द, रूप । भोग गंध, रस, स्पर्श । इसमें इहलोक और परलोक दोनों से सम्बन्धित काम-भोग की आकांक्षा रहती है । अत: यह १ २ से भिन्न है ।
• इस प्रकार के धर्माराधन के फलस्वरूप मुझे जन्मान्तर में विशिष्ट काम - भोग मिले ऐसी आशंसा रखना ।
• पूर्वोक्त पाँच संलेखना के अतिचार हैं। आशंसा करने से विधिपूर्वक की गई आराधना भी सदोष हो जाती है। अतः इन पाँचों का त्याग करना चाहिये ।
२. वनकर्म
३. शकटकर्म
४. स्फोटकर्म
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आशंसा विनिर्मुक्तोऽनुष्ठानं सर्वमाचरेत् ।
मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः ।
अर्थ- मोक्ष और संसार प्रति निस्पृह, मुनिश्रेष्ठ, सभी अनुष्ठान निष्काम भाव से करे ॥ २६४ ॥ कर्मादान १५ - जिनके द्वारा आत्मा कर्मों का बन्धन करता है वे कर्मादान हैं।
१. अङ्गारकर्म
अग्निकाय के आरम्भ से निष्पन्न वस्तुओं के क्रय-विक्रय द्वारा आजीविका करना । जैसे कोयला, ईंट आदि बनाकर बेचना । कुम्भार, लुहार, सुनार एवं भड़भूँजा आदि का धन्धा करना । आजीविका के लिये कटे, बिना कटे पेड़, पत्ते, पुष्प, फलादि को बेचना । किसी के मतानुसार मूँग, चना आदि की दाल बनाना, गेहूँ, जौ आदि को दलना, पीसना वनकर्म है। यहाँ इसे स्फोट कर्म माना है I
गाड़ी, रथ आदि वाहन तथा उनके अवयव जैसे, पहिये, धुरी आदि स्वयं बनाना अथवा बनवाकर बेचना ।
आजीविका के लिये कुँआ, बावड़ी, तालाब आदि खुदवाना, हल चलाना, पत्थर फोड़ना, घड़ना, खान खुदवाना, गेहूँ, जौ, चना, मूँग, उड़द आदि को दलना- पीसना, चांवल खांडना, कनी करना आदि ।
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स्थिति में अनशनी यह भावना करे कि अब मैं शीघ्र मरूँ तो अच्छा होगा । अथवा, असह्य व्याधि से ऊबकर जल्दी मरने की
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चाह करना ।
अनशन लेने के बाद, कपूर, चन्दन, वस्त्र वगैरह द्वारा होने वाली विशिष्ट पूजा, अपने दर्शन के लिये उमड़ते मानव समूह को देखकर तथा लोकों के प्रशंसा वचन को सुनकर विचारे कि 'मैं चिरकाल अनशनी के रूप में जीवित रहूँ, मेरे निमित्त से लम्बे काल तक शासन की प्रभावना होती रहे ।'
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