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प्रवचन-सारोद्धार
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उनसे पूछे बिना ही अन्य साधुओं को रुचि-अनुसार प्रचुर मात्रा
में बाँटना। प्रश्न-आशातना की संग्राहक गाथा में ‘खद्ध' शब्द नहीं है तो सत्तरहवीं आशातना के रूप में इसकी व्याख्या कैसे की?
उत्तर-१८वा 'खद्धाइयण' दोष है। सूत्र शैली की विचित्रता के कारण ‘खद्धाइयण' में से 'खद्ध' शब्द अलग करके १७वाँ 'खद्ध' दोष बनाया जाता है। इस प्रकार ‘खद्ध' शब्द का पुनरावर्तन होता है । इसलिये विवरण गाथा में सूत्रकार ने स्वयं कहा है कि 'यद्यपि आशातना की संग्राहक गाथा में 'खद्ध' शब्द अलग नहीं कहा गया है तथापि 'खद्धाइयण' में से इसे अलग करके १७वाँ दोष अलग से बनाया गया है। १८. खद्धाइयण - इस आशातना का विवरण दशाश्रुतस्कंध के अनुसार बताया गया
है-रत्नाधिक के साथ गौचरी करते हुए शिष्य का सुसंस्कृत वृन्ताक, ककड़ी, छौले आदि भाजीयुक्त शाक प्रचुरमात्रा में ले लेकर खाना। शुभ वर्ण, गन्ध रसादि से युक्त किसी प्रकार अचित्त किये हुए अनार, आम्र आदि फलों को उठा- उठाकर खाना। भव्य, अभव्य, रूखे-सूखे, चिकने-चुपड़े आहार में से जो कुछ प्रिय लगे वह प्रचुरमात्रा में खाना । इस प्रकार रत्नाधिक के साथ बैठकर अच्छा-अच्छा इच्छानुसार खाना, आशातना का कारण
अन्यमते
१९. अपडिसुणण
२०. खद्धन्ति २१. तत्थगय
- भिक्षा में से आचार्य को थोड़ा देकर शेष स्निग्ध, मधुर, मनोज्ञ
भोजन, शाक आदि स्वयं खा लेना ‘खद्धाइयण' दोष है। - आचार्य की आवाज सुनकर भी प्रत्युत्तर न देना (यह आशातना दिन से सम्बन्धित है पूर्व में जो ‘अप्रतिश्रवण' रूप आशातना
कही वह रात्रि सम्बन्धी है)। - रत्नाधिक के साथ कर्कश व तीखी आवाज में बोलना। - गुरु व रत्नाधिक के बुलाने पर आसन पर बैठे-बैठे ही प्रत्युत्तर
देना। - आचार्य के बुलाने पर क्या है? क्या कहते हो? ऐसा बोलना।
वस्तुत: आचार्य द्वारा आवाज देने पर, शिष्य को तुरन्त वहाँ जाकर 'मत्थएण वंदामि' कहकर गुरु के सम्मुख खड़ा रहना
चाहिये। - रत्नाधिक को 'तूं' ऐसे एकवचन से सम्बोधित करना। कहना
२२. किं
२३. तम्हं
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