Book Title: Prashnottaraikshashti Shatkkavyam
Author(s): Jinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh
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इससे स्पष्ट होता है कि संवेगरङ्गशाला का गुणचन्द्रगणि ने परिमार्जन और जिनवल्लभगणि ने संशोधन किया था। गुणचन्द्रगणि जो कि आचार्य बनने के बाद देवभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए थे, उन्हीं ने महावीर चरित्र की रचना विक्रम संवत् ११३९ में गुणचन्द्रगणि के नाम से ही की थी। अतः यह स्पष्ट है कि विक्रम संवत् ११२५ के पूर्व ही जिनवल्लभगणि ने आचार्य अभयदेवसूरि से उपसम्पदा प्राप्त कर ली थी। अन्यथा एक चैत्यवासी गणि से सुविहित पक्षीय जिनचन्द्रसूरि इस ग्रन्थ का संशोधन नहीं करवाते।
उपसम्पदा के पश्चात् क्रमशः विचरण करते हुए जिनवल्लभगणि चित्तौड़ आये। उनका वैदग्ध्य तथा खरतर/तीक्ष्ण एवं कठोर आचारव्यवहार देखकर वहाँ के प्रमुख-प्रमुख श्रेष्ठि भी इनके उपासक बन गये। वहाँ आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रतिपादित वसतिवास, सुविहित मार्ग, विधि पक्ष का कोई भी जिन मंदिर नहीं था। धार्मिक अनुष्ठानों में भी बाधा पड़ती थी। अतएव जिनवल्लभगणि के उपदेश से तत्रस्थ श्रावकों ने चित्तौड़ में भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के दो नवीन विधि चैत्य बनवाए
और इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा भी इन्हीं के हाथों से सम्पन्न करवाई। आचार्य जिनेश्वर ने चैत्यवास का विरोध करने में जिस निषेधात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया था और जो ज्योति जलाई थी, उस ज्योति को परम ज्योति का रूप देते हुए निषेधात्मक प्रवृत्ति का अवलम्बन लेकर भी विधिमार्ग अर्थात् करणीय मार्ग का प्रतिपादन भी इन्होंने प्रबलता के साथ किया। यही कारण है कि खरतर विरुद प्राप्त होने पर भी आचार्य जिनेश्वर ने स्वयं के लिए सुविहित शब्द का प्रयोग किया और जिनवल्लभ के समय विधि पर अत्यधिक जोर देने के कारण वही सुविहित पक्ष 'विधि पक्ष' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में यही मार्ग खरतरगच्छ के नाम से अभिरूढ़ हो गया।
इनकी असाधारण प्रतिभा, वैदुष्य और आशुकवित्व देख कर मालव और मेदपाटाधिपति महाराज नरवर्म भी उनके प्रशंसक ही नहीं अनुयायी भी बन गये और उन्होंने चित्रकूट में नव-निर्मापित भगवान् महावीर के मंदिर में दान भी दिया।
आचार्य अभयदेवसूरि की अन्तरङ्ग अभिलाषा, जिसे कि वे पूर्ण नहीं कर पाये थे, उसे आचार्य अभयदेव और प्रसन्नचन्द्राचार्य के संकेतानुसार