Book Title: Prashnottaraikshashti Shatkkavyam
Author(s): Jinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ बनाया और बड़े मनोयोग से तर्क, अलंकार, व्याकरण, कोश आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन भी करवाया। आचार्य की अनुपस्थिति में एक सिद्धान्त पुस्तक उनके देखने में आई और चैत्यवास-परम्परा को सिद्धान्त-विरुद्ध देखकर वे विरक्त हो गये। जिनेश्वराचार्य उस समय के प्रौढ़ विद्वान् थे। जिनपालोपाध्याय के कथनानुसार उन्होंने जिनवल्लभ को पाणिनीय आदि आठों व्याकरण, मेघदूतादि काव्य, रुद्रट-उद्भट-दण्डी-वामन और भामह आदि के अलङ्कार ग्रंथ, ८४ नाटक, जयदेव आदि के छन्दःशास्त्र, भरतनाट्य, कामसूत्र और अनेकान्तजयपताकादि जैन न्यायग्रंथ तथा न्यायकंदली, किरणावली, न्यायसूत्र तथा कमलशीलादि जैनेतर दार्शनिक ग्रंथ पढाये थे। जैसा कि जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली (पृष्ठ १०) पर लिखा है: वेदितारो जिनेन्द्रमतस्थापकतर्काभयदेवानेकान्तजयपताकादि, परदर्शनकन्दली-किरणावली-न्यायतर्कादि, पाणिन्याद्यष्ट व्याकरणं सूत्रतोऽर्थतश्च, चतुरशीतिनाटक-सर्वज्योतिष्कशास्त्र-पञ्चमहाकाव्यादिसर्वकाव्य-जयदेवप्रभृतिसर्वच्छन्दोज्ञातारः। प्रतिभासम्पन्न मेधावी समझकर जिनेश्वराचार्य ने इनको सभी विषयों में पारंगत विद्वान् बनाया। आगम-साहित्य ज्ञान की पूर्ति के लिए उन्होंने स्वयं सुविहिताग्रणी नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि के पास जिनवल्लभ को अध्ययनार्थ भेजा। इनकी प्रतिभा, सेवा और लगन देखकर अभयदेवाचार्य भी प्रसन्न हुए और उन्होंने सहर्ष आगमामृत रस का पान कराया। भगवान् महावीर प्रतिपादित आचार धर्म का विशुद्ध प्रतिपालन और सुविहित क्रियाचार सम्पन्न देखकर जिनवल्लभ भी आचार्य अभयदेव के ही बन गये। बन ही नहीं गये, अपितु उनके अन्तरंग शिष्य बनकर उनसे उपसम्पदा प्राप्त की। सद्गुरु जिनेश्वरसूरि के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरि ने विक्रम संवत् ११२५ में संवेगरङ्गशाला ग्रन्थ की रचना की। उसकी प्राचीनतम ताड़पत्रीय प्रति की प्रशस्ति में लिखा है :- इति श्रीजिनचन्द्र सूरिकृता तद्विनेयश्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यसमभ्यर्थितगुणचन्द्रगणिप्रतिसंस्कृता जिनवल्लभगणिना च संशोधिता संवेगरंङ्गशालाभिधानाराधना समाप्ता॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 186