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त्रिविक्रम प्राकृत-व्याकरण
नाम, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि उसके प्राकृत व्याकरणकी लोकप्रियता और उसके व्याकरणकी पांडुलिपियोंका प्राप्तिस्थान, इन बातोंसे यह स्पष्ट होता है त्रिविक्रम दाक्षिणात्य (दक्षिण भारतीय ) था-संभवतः कर्नाटकसे संबंध रखनेवाला आंध्रनिवासी था। इसके बारेमें समर्थक प्रमाण यह दिया जा सकता है कि ' दोडि सायंभोजनम् ' जैसे कुछ शब्दोंका अंतर्भाव त्रिविक्रम देश्य शब्दों में करता है जबकि ये शब्द हेमचंद्रकी देशीनाममालामें मिलते नहीं पर द्राविडी भाषाओंमें मिलते हैं। त्रिविक्रमका समय
वीरसेन तथा जिनसेन इन दोनोंका उल्लेख त्रिविक्रम करता है । ये दोनों ई. स. की नवीं शतीके मध्यके थे। हेमचंद्रकाभी उल्लेख त्रिविक्रम करता है। हेमचंद्रकी मृत्यु ई. स. ११७२ में हुई : इससे यह दिखाई देता है कि बारहवीं शतीके अंतिम चरणके बाद, पर हेमचंद्रके बाद अधिक समयसे नहीं, त्रिविक्रम हो गया । त्रिविक्रमके व्याकरणके बादके सिंहराजकृत प्राकृतरूपावतार, लक्ष्मीधरकृत षड्भाषाचंद्रिका तथा अप्पय्य दीक्षितकृत प्राकृतमगिदीप ये ग्रंथ उपलब्ध हैं । अप्पय्य दीक्षितकी मृत्यु उम्रके ७२ वें सालमें-ई. स. १६२६ में-हुई थी । अप्पय्यके ग्रंथमें लक्ष्मीधरका उल्लेख विशेषरूपसे मिलता है। अतएव लक्ष्मीधरका समय साधारणतया ई. स. १४७५ - ई. स. १५२५ के बीचका हो सकता है। यद्यपि लक्ष्मीधर या अप्पय्यके द्वारा सिंहराजका उल्लेख हुआ नहीं, फिरभी वह उनके पूर्व या उनका ज्येष्ठ समकालीन रहा होगा; उसका समय पंद्रहवीं शतीका पूर्वार्ध होगा। इसलिए तेरहवीं शतीके उत्तरार्धको त्रिविक्रमके समयके रूपमें माना जा सकता है। डॉ. आ. ने. उपाध्येजीके मतानुसार, ई. स. १२३६ के बाद जल्दही त्रिविक्रमद्वारा अपना प्राकृत व्याकरण रचा गया । त्रिविक्रमके ग्रंथ
__कुछ लोगोंका मत ऐसा है कि त्रिविक्रमके प्राकृत व्याकरणमेंसे सूत्रभाग वाल्मीकिका है और उसका टीकाभाग त्रिविक्रमद्वारा रचित है। पर डॉ. प. ल. वैद्यजी तथा अन्य पंडित इस मतको नहीं मान्य करते । उनके अनुसार सूत्र तथा टीका ये दोनों भाग त्रिविक्रमकेही रचे हुए हैं।
प्राकृत व्याकरणकी अपनी टीकाके बारे में त्रिविक्रम प्रास्ताविकके श्लोकोंमें कहता है:-इस (प्राकृत व्याकरण - ) विषयपर अभ्यासकोंको अधिकार प्राप्त हो इसी हेतुसे यह टीका मैंने रची है । परंपरागत पद्धतिके अनुसार यह टीका है । ( इस टीकामें ) यद्यपि बहुत कम शब्दोका प्रयोग है तो भी वे दर्पणके समान काम देंगे; इस प्रकार इस टीकाकी श्रेष्ठता है । त्रिविक्रम आगे कहता है :- प्राकृत रूपोंकी चर्चा करते समय जिस पारंपरिक पद्धतिका अवलंबन हेमचंद्रतकके पूर्व आचार्योंद्वारा किया गया था उसी पद्ध. तिका प्रयोग भैने इस व्याकरणमें किया है (श्लोक ९-११)।
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