Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 14
________________ देश को नाम देने के लिए खुद को भरत बनाना होता है -सूर्यकान्त बाली आज कुछ नहीं करना, सिर्फ भारत का गुणगान करना है। भारत का गुणगान करना तो एक तरह से अपना ही गुणगान करना हुआ। तो भी क्या हर्ज है? गुणगान इसलिए करना है; क्योंकि उनको, उन पश्चिमी विद्वानों को, जो हमें सिखाने का गरूर लेकर इस देश में आए थे, उनको बताना है कि हमारे देश का जो नाम है, वह वही क्यों है। वे जो अहंकार पाले बैठे थे कि इस फूहड़ (उनके मुताबिक) देश के बाशिंदों को उन्होंने सिखाया है कि राष्ट्र क्या होता है, राष्ट्रीय एकता क्या होती है, उन्हें बताना है कि इस देश के पुराने, काफी पुराने साहित्य में पूरी शिद्दत से दर्ज है कि 'भारत' नामक राष्ट्र का मतलब क्या होता है और क्यों होता है? और उन तमाम इतिहासकारों को भी जिन्हें पश्चिमी विद्वानों द्वारा भारतीय इतिहास के आर-पार सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है, यह बताना है कि अपने देश का नाम-रूप जानने के लिए उन्हें अपने देश के भीतर ही झांकना होता है। तेरा राम तेरे मन में है। 'महाभारत' का एक छोटा-सा संदर्भ छोड़ दें, तो पूरी जैन-परम्परा और वैष्णवपरम्परा में बार-बार दर्ज है कि समुद्र से लेकर हिमालय तक फैले इस देश का नाम प्रथम तीर्थकर दार्शनिक राजा भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर 'भारतवर्ष' पड़ा। महाभारत (आदि पर्व 2-96) का कहना है कि इस देश का नाम 'भारतवर्ष' उस भरत के नाम पर पड़ा, जो दुष्यन्त और शकुन्तला का पुत्र कुरुवंशी राजा था। पर इसके अतिरिक्त जिस भी पुराण में भारतवर्ष का विवरण है, वहाँ इसे ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर ही बताया गया है। वायुपुराण' कहता है कि इससे पहले भारतवर्ष का नाम 'हिमवर्ष' था, जबकि 'भागवत पुराण' में इसका पुराना नाम 'अजनाभवर्ष' बताया गया है। हो सकता है कि दोनों हो और इसके अलावा भी कुछ नाम चलते और हटते रहे हों, तब तक जब तक कि भारतवर्ष' नाम पड़ा और क्रमश: सारे देश में स्वीकार्य होता चला गया। आप खुश हों या हाथ झाड़ने को तैयार हो जाएँ. पर आज उन पुराण-प्रसंगों को 00 12 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)

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