Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 98
________________ के दो नररत्न राजा हरसुखराय जी जैन एवं राजा सुगनचन्द जैन के चित्रों से सुसज्जित है। ये नररत्न दिल्ली के मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय (1759-1806 ई.) के शासनकाल में थे। अत: श्रेयस्कर स्थान देना स्वाभाविक है। __ अंक सदैव की भांति सुन्दर व पठनीय सामग्री से पूर्ण है। सहयोगी भाई तथा संपादक बधाई के पात्र है। -मदनमोहन वर्मा, ग्वालियर (म.प्र.) ** 0 'प्राकृतविद्या' वर्ष 14, अंक 3 मेरे समक्ष है। हर अंक की भाँति इस अंक की प्राप्ति होते ही आद्योपान्त पढ़ चुका हूँ। मुखपृष्ठ पर चित्रित 'नीर-क्षीर विवेक का प्रतिमान-राजहंस' विद्वानों की ओर इशारा कर रहा है कि विद्वानों की दृष्टि इसप्रकार होना चाहिये, किन्तु आज की स्वार्थलिप्सा की दौड़ में इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। .. सम्पूर्ण पत्रिका ज्ञाननिधि से ओतप्रोत है। पत्रिका निरन्तर विकास-पथ पर बढ़ती जाए। –ब्र. संदीप 'सरल', अनेकान्त ज्ञान मंदिर, बीना, सागर (म.प्र.) ** 0 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2002 अंक मिला, आभार। मुखपृष्ठ की चित्रावली अत्यन्त मनमोहक लगी, इस अंक में परमपूज्य आचार्यश्री के अमृतमयी लेख (वचन) 'जगद्गुरु' और स्वयं आपका लेख 'जैन-परम्परा में आचार्यत्व' अधिक ज्ञानवर्धक लगे। निश्चितरूप से भाव-चेतना जागृत हुई।. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आपके प्रयास अत्यन्त स्तुत्य हैं, यही कारण है कि इसमें शोधपरक लेखों और अन्य महत्त्वपूर्ण सामग्री का समावेश रहता है, जो इन्हें संग्रहणीय बनाता है। आपको अनेकानेक बधाईयाँ । . . -सुन्दर सिंह जैन, छत्ता प्रताप सिंह, किनारी बाजार, दिल्ली ** 0 जब से मैंने 'प्राकृतविद्या' का आद्योपान्त अध्ययन किया है, तब से इसने मेरे ज्ञानार्जन में न केवल वृद्धि की है, बल्कि एक जीवन की दशा एवं दिशा दोनों को मूर्तरूप दिया है। कभी-कभी उसमें जो नवीन विचारधाराओं की रूपरेखा प्रस्तुत की जाती है, वह आद्योपान्त ग्राह्य और मनन-योग्य होती है। प्राकृतविद्या में विभिन्न विद्वज्जनों के लेख आज के वातावरण में न केवल शोधपूर्ण हैं, बल्कि उनकी असाध्य-साधना के प्रतिफल भी है। मेरा विश्वास है कि प्राकृतविद्या आप जैसे सुधीजनों की साधना से निरन्तर अपने प्रगति के पथ : पर अग्रसर होती रहेगी। इति। -डॉ. ए.आर. सगर, ग्वालियर (म.प्र.) ** 0 आपके द्वारा प्रेषित 'प्राकृतविद्या' मिली। यह बहुत ही उपयोगी शोधपत्रिका है। _ -डॉ. शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी, राजा बाजार, लखनऊ (उ.प्र.) ** 0 आप द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'प्राकृतविद्या' का गत दो वर्षों से पाठक होने का सौभाग्य मिल रहा है। अब तक के सभी अंक ज्ञानवर्धन के लिये उपयोगी हैं। सभी लेखकों के लेख चिंतन योग्य हैं। यह पत्रिका मेरे जीवन को परिवर्तित करने में सहायक है। यह सब मनोगत विचार आपकी पत्रिका को बधाई देने हेतु लिखने का साहस कर रहा हूँ। -चंदनमल जैन, दुर्गापुरा-जयपुर (राजस्थान) ** 0 प्राकृतविद्या पत्रिका वर्तमान युग में अनूठी है; सामग्री सारगर्भित रहती है। -नरेन्द्र कुमार जैन, महावीर नगर, भोपाल (म.प्र.) ** 0096 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)

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