Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ हमारा सोच कितना यथार्थ/अयथार्थ है, विकृत है आदि। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि नगरी/ राजाओं आदि का वर्णन उपमारूप में काव्यात्मक होता है, उसे यथार्थ से जोड़ने में बहुत संकट खड़े हो सकते हैं। इशारा पर्याप्त है। प्रज्ञाश्रमणी जी को एक लाख योजनवाले ऐरावत हाथी की भी समस्या है कि वैशाली-कुण्डपुर में कैसे भ्रमण करेगा। मैं उनसे विनम्रतापूर्वक जानना चाहता हूँ कि उनके संकोच-विस्तार के अनुपात से ऐरावत हाथी क्या समग्र एशिया महाद्वीप में भी बैठा/खड़ा रह सकता है? कृपया गम्भीरता से विचार करें। एक अयथार्थ हठरूप मान्यता सिद्ध करने कहीं हम जैनागम को प्रश्नचिह्नित करने का महान् कार्य तो नहीं कर रहे हैं? इस बिन्दु पर विद्वान् मनीषियों, पुरस्कार-विजेताओं और जिन-दीक्षाधारियों को विचारना चाहिये। ____छठवें, नाना-नानी की सुन्दर भावोत्तेजक कल्पना कर प्रज्ञाश्रमणी जी ने पाठकों का ध्यान इस कटु-सत्य से हटाने का प्रयास किया है कि वैशाली उस काल में वज्जिसंघ की राजधानी थी। इस संघ में राजा चेटक, राजा सिद्धार्थ, राजा कूल जैसे अन्य अनेक राजाओं के राज्य सम्मिलित थे। इन भागीदारों की राज्य सीमाएँ एक-दूसरे से जुड़ी थीं। यह वस्तुस्थिति उपरोक्त दिगम्बर आगम, श्वेताम्बर आगम, बौद्ध ग्रन्थों एवं इतर साहित्य से सहज सिद्ध होती है। इसे स्वीकारने की अपेक्षा बौद्धधर्मावलम्बी श्रेणिक की राजधानी के एक नालंदापाडा का कुण्डपुर मानना प्रज्ञाश्रमणी जी की प्रज्ञा यदि स्वीकारती है, तो वह उनकी प्रज्ञा का विषय हो सकता है। उससे वस्तुस्थिति में परिवर्तन तो नहीं हो जाएगा। ऐसा करते समय उन्हें तीर्थंकर के महान् पिता के महान राज्य की सीमा और स्थिति भी सप्रमाण सिद्ध करना चाहिये। यह प्रमाण दो प्रकार के होंगे- पहला नालंदा कुण्डपुर की सिद्धि का और दूसरा वासोकुण्ड-कुण्डपुर के पक्ष में दिये गये समग्र तथ्यों की असिद्धि का। मात्र मिथ्या-कल्पना और कल्पित-आक्षेप लगाने से कार्य की सिद्धि नहीं होगी, उससे तो पद की मर्यादा खंडित होती है। सातवें, जैनधर्म की नींव सम्यक्-श्रद्धा पर आधारित है। हमारी परम्परागत श्रद्धा तो पर-वस्तुओं एवं विभाव-भावों में रचने-पचने की है। भेद-विज्ञान द्वारा ज्ञान-स्वभावी स्वयंभू आत्मा के अनुभवरूप श्रद्धान से संवर होता है। यही बात इस प्रकरण में लागू होती है। जन्मस्थली की श्रद्धा व्यक्तिवाची न होकर समिष्टरूप है। इसकी श्रद्धा-अश्रद्धा से मोक्षमार्ग बाधित नहीं होता। श्रद्धा ज्ञान का अनुकरण करती है। नवीन-तथ्यों के प्रकाशन में श्रद्धा बदलती है। जो अनाग्रही होते हैं, उन्हीं की श्रद्धा सम्यक् होती है, -ऐसा आगमवचन है। अत: परम्परा श्रद्धा या अपुष्ट स्थापना-निक्षेप की अवधारणा से भी नालंदा-कुण्डलपुर वीर-जन्मभूमि सिद्ध नहीं होती। अंत में, प्रज्ञाश्रमणी जी ने गणिनी ज्ञानमती जी के जन्मस्थल और कर्मभूमि की भिन्नता निरूपित कर वैशाली में प्राप्त पुरातत्त्वीय प्रमाणों एवं आगम-संदर्भो को प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 00 55

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116