Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 65
________________ बोली प्राकृत का होना स्वाभाविक है। इसीसे अशोक-पूर्व अभिलेखों में पिपरहवा - बौद्ध अस्थिकलश अभिलेख (पाँचवीं शती ई.पू.), सोहगौरा ताम्रपत्र-अभिलेख (लगभग चौथी शती ई.पू.) तथा महास्थान खण्डित प्रस्तर-पट्टिका अभिलेख (लगभग 300 ई.पू.) इन सभी में 'प्राकृतभाषा' एवं 'ब्राह्मी-लिपि' का प्रयोग किया गया है। अशोक के शिलालेख सम्राट अशोक के द्वारा जो शिलालेख लिखाये गये, उनमें प्राकृतभाषा का प्रयोग हुआ। उस प्राकृत में शौरसेनी-प्राकृत की अनेक विशेषताएँ उपलब्ध हैं। अशोक के विशालसाम्राज्य की फैली हुई सीमाओं पर खुदवाये गए इन अभिलेखों को 'भारत का प्रथम लिंग्विस्टिक सर्वे' कहा जा सकता है। यद्यपि ये शिलालेख एक ही शैली में लिखे गए हैं, फिर भी इनकी भाषा में स्थान-विशेष के कारण अन्तर है। इसी अन्तर को वैभाषिक-प्रवृत्ति' कहा गया है। इन शिलालेखों में पश्चिमोत्तर में पैशाची-प्राकत, पूर्व में मागधी की, दक्षिण-पश्चिम में शौरसेनी-प्राकृत की एवं मध्यपूर्वी-समूह में शौरसेनी और मागधी की मिश्रित प्रवृत्तिर्यां पाई जाती हैं। अशोक की राजभाषा 'मागधी-प्राकृत थी। पर उस काल के वृहत्तर-भारत में शौरसेनी का अस्तित्व विद्यमान था। • इसप्रकार अशोक ने सभी प्राकृतों को अपनाकर सभी में शिलालेख लिखवाए, क्योंकि प्राकृतें इस समय सम्पूर्ण भारत की जनभाषाएँ थीं, जबकि मगध में राज्य करने के कारण राजभाषा का दर्जा केवल 'मागधी-प्राकृत' को मिला था। खारवेल का शिलालेख ई.पू. कालीन सदियों की जैन-मूर्तिकला, जैनधर्म के प्रभाव-विस्तार, जैनी मुनि-सम्मेलन एवं साहित्यिक-संगीति आदि ऐतिहासिक संसूचनाओं की सुरक्षा की दृष्टि से ई.पू. दूसरी सदी का उदयगिरि-खण्डगिरि में स्थित प्राकृतभाषा में निबद्ध शिलालेख न केवल जैन-इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है; अपितु नन्दकालीन भारतीय इतिहास, मौर्य-पूर्वयुग की भारतीय-प्राच्य-मूर्ति-शिल्पकला, प्राचीन कलिंग एवं मगध के राजनैतिक सम्बन्ध, दक्षिण भारतीय राज्यों से कलिंग के सम्बन्ध आदि का उसमें सुन्दर वर्णन है। यही एक शिलालेख है, जिसकी दसवीं पंक्ति में भारत का नाम 'भरधवस' मिलने के कारण उसे प्राचीनतम शिलालेखीय-प्रमाण मानकर भारत का संवैधानिक-नाम 'भारतवर्ष घोषित किया गया। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार “ई.पू. 450 तक के प्राच्य-भारतीयइतिहास के क्रम-निर्धारण में यह विशेष-सहायक है। इस शिलालेख से यह भी स्पष्ट होता है कि भगवान महावीर के परिनिर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद ही जैनधर्म कलिंग का राष्ट्रधर्म बन गया था।" __इसप्रकार चेदिवंशीय कलिंग-सम्राट् खारवेल का यह हाथीगुम्फा-अभिलेख मौर्योत्तर 'ब्राह्मी-लिपि' में 'प्राकृतभाषा' में लिखे होने से तत्कालीन समाज में प्राकृत के जनभाषा प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 0063

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