Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 76
________________ निप्पटमे जीर्णमादुद, नुप्पट्टायतन महाजिनेंद्रालयमं । निप्पोसतु माडिदं कर, मोप्पिरे हुळळं मनस्वी बंकापुरदोळ।। दृढ़संकल्पी हुळळ ने (वाजीवंश के यक्षराजा लोकांबिका के सुपुत्र होयसळ-राजपरिवार के विष्णुवर्धन, नारसिंह और राज इम्मडी बल्लाळ के भंडारी तथा महाप्रधान थे) बंकापुर में शिथिलावस्था में स्थित 'उपट्टायतन' (उरिपट्टायण) नाम के जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया। बाद में यह मंदिर नवनिर्मित-सा दिखाई देने लगा। इससे स्पष्ट होता है कि बंकापुर में उरिपट्टायण' नाम का एक जिनालय था। इसी कन्नड़-शिलालेख में आगे लिखते हैं- कलितनमं विटत्वमुमनुळळवनादियोळोर्खनुर्वियेळ्, कविविटनेबनातन जिनालयमं नेरजीर्णमादुदं। कलिसले दानदोळ्परम सौख्यरमारतियोळवटं विनिश्चल, ..मेनिसिर्द हुळळनदनदत्तिसिदं रजताद्रितुंगमं ।। कलितन और विटत्ववाले कलिविटने बंकापुर में इससे पहले ही एक जिनालय का निर्माण करवाया था। यह पूरी तरह नष्ट हो गया था। दृढचित्त, दानशूर और मोक्षलक्ष्मी के इच्छुक हुळळ ने इस जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया। इतना ही नहीं, 'हानगल' तहसील के 'मंतगी' ग्राम का शिलालेख" भी इस जिनालय तथा भूदान का विवरण देता है। इन सभी आधारों पर यह सिद्ध होता है कि बंकापुर में 'कलिविट' नाम का एक जिनालय था। समझा जाता है कि यह जिनालय भी चल्लकेतन परिवार के समय में ही निर्माण हुआ था। इस परिवार में 'कलिविट्ट' नाम के दो राजा थे। लोकादित्य के पुत्र प्रथम कलिविट्ट", द्वितीय बंकेय के बाद शासन किए हुए लोकादित्य के पौत्र द्वितीय कलिविट्ट", इनमें कालमान की दृष्टि से लोकादित्य के पौत्र राजा द्वितीय कलिविट्ट ने ही इस जिनालय का निर्माण करवाया था। ____कहा जाता है कि गुणभद्राचार्यजी ने अपने 'उत्तरपुराण' की रचना 63 स्तंभवाले जिनालय में पूर्ण की थी। आज किला के परिसर में पश्चिमाभिमुख स्थित 'नगरेश्वर देवालय' ही वह जिनालय रहा होगा। इस देवालय के महामण्डप में 60 स्तंभ होने के कारण से स्थानीय लोग इस देवालय को साठ स्तंभवाला देवालय' कहते हैं। इस देवालय के चार शिलालेखों में अत्यंत प्राचीन शिलालेख का समय 1093 ई. है। इसमें नकरेश्वर देव के नंदादीप को और अन्य पूजा के लिए दान का विषय वर्णित है। इससे मालूम होता है कि इस देवालय का सन् 1903 ई. से पहले ही निर्माण हुआ था। इस देवालय की वास्तुकला, देवकोष्ठी आदि इसके साक्ष्य हैं। लेकिन साठ स्तंभवाले महामण्डप की रचना बाद में हुई है। 1178 ई. का शिलालेख साक्ष्य है। प्राय: यही मूल- जैनमंदिर रहा होगा, यही मंदिर लगभग 11-12 सदी में शैव-देवालय में परिवर्तित हुआ होगा। लेकिन इसके लिए और भी आधारों की आवश्यकता है। 0074 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)

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