Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 13
________________ व समाज को नैष्ठिक-प्रयत्न करना होगा। इसके बिना हम श्रुत-परम्परा का संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार सक्षम-रीति से नहीं कर सकते हैं। हमारे आगम-ग्रन्थ मूलत: प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं। किन्तु यह खेद की बात है कि जैनसमाज ने आजतक एक प्राकृत-पाठशाला की स्थापना भी नहीं की है, जबकि संस्कृत की हजारों पाठशालाएँ जैनसमाज के द्वारा देशभर में खोली गई हैं। इसीलिए प्राकृतभाषा के ज्ञान और पठन-पाठन की परम्परा अनुपलब्ध हो जाने के कारण आज हमारे आगम-ग्रन्थों के मूलानुगामी विद्वान् प्राय: नहीं हैं, और आगामी पीढ़ी में भी इनकी उपलब्धता के कोई आसार नज़र नहीं आते। रही-सही कसर जैनग्रन्थों एवं अन्य लौकिक साहित्य के ग्रन्थों के मूल प्राकृत-अंश को हटाकर उसकी कृत्रिम संस्कृत-छाया देने की मनोवृत्ति ने पूरी कर दी है। हमें यह व्यामोह छोड़ना पड़ेगा तथा विद्वानों को यह संकल्प लेना होगा कि वे अपने प्रकाशनों में प्राकृत के मूलनामों और मूलपाठों को ही सुरक्षित रखें, तथा प्राकृतभाषा सीखने और सिखाने के लिए जो भी साधन उपलब्ध हैं, उनका सदुपयोग करते हुए लुप्तप्राय: प्राकृतभाषा को पुनर्जीवित करने का पुण्यसंकल्प लें। विचार करें कि क्या हम अपनी श्रुत-परम्परा अपनी जिनवाणी माँ के हित में वास्तव में चिंतित भी हैं? तथा इस दिशा में हमारे प्रयत्न कितने सार्थक हैं? प्राकृत भी सारस्वत भाषा है प्राय: मात्र संस्कृतभाषा को ही दैवी-वाक् या देववाणी कहा जाता है, जबकि देवी सरस्वती संस्कृत के साथ-साथ प्राकृतभाषा का भी समानरूप से प्रयोग करती थीं— यह प्रमाण महाकवि कालिदास ने अपने साहित्य में स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया है। 'द्विधा प्रयुक्तेन च वाङ्मयेन, सरस्वती तन्मिथुनं नुनाव। संस्कारपूतेन वरं वरेण्यं, वधुं सुखग्राह्य-निबंधनेन ।।' ___ -(महाकवि कालिदास, कुमारसंभव, 7-90) अर्थ :- सरस्वती देवी ने {शिव और पार्वती के मिथुन-जोड़ी की दो तरह की काव्य वांग्मय द्वारा स्तुति की थी तथा श्रेष्ठवर शिवजी को संस्कार सम्पन्न पवित्र संस्कृतभाषा से तथा वधू पार्वती को सुखग्राह्य प्राकृतभाषा प्रबन्ध के द्वारा मंगलाष्टकपूर्वक शुभाशीर्वाद दिया। 'जे प्राकृतकवि परम सयाने, भाषों जिन हरिचरित बखाने । भये जे अहहिं जे होहहिं आगे, प्रनवहुं सबहिं कपट सब त्यागे।।' -(तुलसी, रामचरितमानस 25. पृष्ठ 25) अर्थ :- प्राकृतभाषा के जो चतुर महाकवि हुए हैं, जिन्होंने भगवान् रामचन्द्र जी का पवित्र चरित्र बनाया है, वे हुए हैं, और भविष्य में आगे होंगे, मैं (तुलसीदास) उन सबको | कपट रहित होकर प्रणाम करता हूँ। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 00 11

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