Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 32
________________ स्वास्तिक का चक्रव्यूह -डॉ. रमेश जैन हड़प्पा-संस्कृति की लिपि के विषय में शोधकार्य करते हुए प्रारंभ से ही ऐसा आभास होने लगा था कि इतिहासकाल के दौरान देश-विदेश में अपने प्रभावी प्रचार के कीर्तिमान स्थापित करनेवाले भारतीय धार्मिक-आन्दोलनों की जड़ें कहीं गहरे, प्रागैतिहासिक-कालखण्ड में निहित हैं। विश्वप्रसिद्ध भारतविद् स्व. कुमारस्वामि ने प्राचीन मानवीय दृष्टि को विश्व (स्थूल-प्रकृति) की संरचनात्मक-अभिकल्पना पर आधारित होने का बात की है।' उसके अनुसार सभी प्राचीन मानव-समाज परिवर्तनशील-कालक्रम एवं स्तरों में विभाजित विश्व-रचना का अनुकरण अपने-अपने कार्य व्यापार में करते थे। इसी धारणा के चलते काल की वृत्ताकार-गति का अनुकरण करते हुए प्राचीन-मानव ने अपने देश एवं नगरों की भी एक वृत्त के रूप में कल्पना की और काल की परिधि का खण्डों के रूप में विभाजन देखते हुए उसी के अनुरूप समाज को विभिन्न-घटकों में विभाजित करके बसाया। स्वत: ही वृत्त की समग्रता में एकरूपता के रहते हुए भी घटकों की भिन्नता स्थायी-भाव ग्रहण कर लेती है। जैसेकि एक घटक यदि अपनी वैयक्तिक-स्थिति के अनुरूप बाँई ओर की गति में विश्वास करता है, तो कोई दूसरा अपनी स्थिति के अनुरूप दाँई ओर की गति में विश्वास करेगा। इसीप्रकार एक के लिए दिन की शुरूआत यदि सूर्योदय से होगी, तो किसी दूसरे के लिए चन्द्रोदय या मध्यरात्रि से। प्राचीन मानवीय इतिहास की यही अवधारणा, स्वास्तिक चिह्न में सीधे अर्थात दाहिनी ओर को मुड़ती भुजाओं और उलटे अर्थात् बाईं ओर की घूमती भुजाओंवाली दो भिन्न धारणाओं में चरितार्थ होती दिखती है। और उनके विषय में विश्वस्तर पर प्रचलित परस्पर विरोधाभाषी अवधारणाएँ स्वत: स्वाभाविक प्रतीत होती हैं। मगर स्वास्तिक के विषय में सोच को एक नया आयाम मिला, जब दिल्ली के आर्यसमाजी स्वामी बिरजानंद का एक शोधपत्र पढ़ने को मिला। विद्वान् लेखक ने उसमें स्वास्तिक-चिह्न का इतिहास रेखांकित करते हुए प्राचीन ब्राह्मी-लिपि के अपने अध्ययन के आधार पर उस प्रतीक चिह्न को 'ओम' शब्द लिखे होने के रूप में पहचाना है। उनके अनुसार ब्राह्मी 'ओ' 'Z' अक्षर को एक-दूसरे को काटते हुए, द्विगुणित करके और फिर उसमें 00 30 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)

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