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था। उस दिन प्रातः मंदिर ( सभाकक्ष) में गुरुदेव का या उनकी अनुपस्थिति में किसी दूसरे आचार्य का सामयिक विषयों पर प्रवचन हुआ करता था ।
विश्वभारती का वातावरण पूर्णतः धर्म-निरपेक्ष था । वहाँ कोई त्यौहार या समारोह धर्म या संप्रदाय के आधार पर नहीं मनाया जाता था । प्रकृति के साथ तादात्म्य होने के कारण वहाँ वर्षा, बसंत व शरद ऋतुओं का आगमन वर्षा - मंगल, बंसतोत्सव एवं शरदोत्सव के रूप में नाच-गान के साथ उल्लासपूर्वक मनाया जाता था। उनमें सभा-सम्मेलनों के अलावा नृत्य-संगीत मेला, यात्रा, बाउल (लोकनाट्य व लोकसंगीत) आदि के कार्यक्रम विशेषरूप से आयोजित किये जाते थे ।
संपूर्ण शिक्षण संस्थान का नाम 'विश्वभारती' था । उसके अंतर्गत कालेज - विभाग का नाम ‘शांतिनिकेतन', कला - विभाग का नाम 'कलाभवन', हस्तकला तथा कुटीर उद्योगशिक्षण- केन्द्र का नाम 'श्रीनिकेतन' और शोध - विभाग का नाम 'विद्याभवन' था । लड़कों के छात्रावास के नाम 'द्वारिका' और 'उत्तरायण' तथा उन्हीं दिनों मिट्टी व तारकोल से निर्मित कलात्मक कुटीर का नाम था 'श्यामलि' ।
'यह करो या यह न करो' जैसी कोई आचार-संहिता थोपी न होने के बावजूद आश्रम का जीवन बड़ा अनुशासित था । आश्रम में करीब दो वर्ष के अपने आवासकाल में कक्षा में अकारण विलम्ब से पहुँचना या अनुपस्थित होना, आपसी तनाव या लड़ाई-झगड़े की एक भी घटना मुझे देखने को नहीं मिली । यहाँ सहशिक्षा की व्यवस्था थी; परन्तु यौन-सम्बन्धी अवैध सम्बन्धों का एक भी प्रसंग सामने नहीं आया । स्वस्थ-प्रेम-प्रसंग अलबत्ता निर्मित हुए, जो आश्रम में ही या बाद में विवाह में परिणत हो गये। 'सादा-जीवन उच्च-विचार' का इससे उत्कृष्ट - उदाहरण मुझे अभी तक अन्यत्र देखने को नहीं मिला ।
विश्वभारती में मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वहाँ के स्नेहसिक्त - पारिवारिक वातावरण ने। रवीन्द्रनाथ गुरुजन, छात्र, छात्राएँ और कर्मचारी का विभेद भूलकर सब इसतरह से घुल-मिलकर रहते थे, मानों एक ही परिवार के सदस्य हों, जिसके मुखिया हों गुरुदेव । आश्रम में पारस्परिक संबोधन की भी बड़ी स्नेह और सम्मानपूर्ण प्रणाली प्रचलित थी। रवीन्द्रनाथ 'गुरुदेव' के नाम से पुकारे जाते थे, तो कला मनीषी नन्दलाल बोस ‘मास्टर मोशाय' (महाशय) और आचार्य क्षितिमोहन 'क्षितिबाबू' के नाम से तथा अन्य गुरुजन या उम्र में बड़े पुरुष व महिला के नाम के अंत में 'दा' या 'दी' जोड़कर । जैसे गुरुदेव के निजी सचिव अनिल कुमार चंदा को, जो राजनीतिशास्त्र के हमारे प्राचार्य भी थे, 'अनिल दा' कहकर पुकारा जाता था । हिन्दी - शिक्षक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 'बड़े पंडित जी' और दुर्गा प्रसाद पांडे 'छोटे पंडित जी' के नाम से प्रसिद्ध थे । गुरु- पत्नी को 'बहू दी' (भाभी) और बुजुर्ग महिला को 'मशी मा' (मौसी) कहकर पुकारा जाता।
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प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2003 (संयुक्तांक )