Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 26
________________ डूंगरसिंह के इतिहास-प्रेम के साथ-साथ उसकी धर्म-निरपेक्षता, समरसता, कलाप्रियता तथा अपने राजकर्मियों की भावनाओं के प्रति अनन्य स्नेह एवं ममता की झाँकी स्पष्ट दिखाई देती है। वह कहता है :___ "हे सज्जनोत्तम ! जो भी पुण्यकार्य तुम्हें रुचिकर लगे, उसे अवश्य ही पूरा करो। हे महाजन ! यदि धर्म-सहायक और भी कोई कार्य हों, तो उन्हें भी पूरा करो। अपने मन में किसी भी प्रकार की शंका मत करो, धर्म के निमित्त तुम संतुष्ट रहो। जिसप्रकार राजा वीसलदेव के राज्य में सौराष्ट्र (सोरट्ठदेश) में धर्म-साधना निर्विघ्नरूप से प्रतिष्ठित थी, वस्तुपाल-तेजपाल ने हाथी-दाँतों से प्रवर तीर्थराज का निर्माण कराया था, जिसप्रकार पेरोजसाहि (फीरोजशाह) की महान् कृपा से योगिनीपुर (दिल्ली) में निवास करते हुए सारंग साहू ने अत्यन्त अनुरागपूर्वक धर्मयात्रा करके ख्याति अर्जित की थी, उसीप्रकार हे गुणाकर ! धर्मकायों के लिए मुझसे पर्याप्त-द्रव्य ले लो, जो भी कार्य करना हो, उसे निश्चय ही पूरा कर लो। यदि द्रव्य में कुछ कमी आ जाए, तो मैं उसे भी अपनी ओर से पूर्ण कर दूंगा। जो-जो भी माँगोगे, वही-वही (मुँह-माँगा) दूँगा।" राजा ने बार-बार आश्वासन देते हुए कमलसिंह को पान का बीड़ा देकर सम्मानित किया। राजा का आश्वासन एवं सम्मान प्राप्त कर कमलसिंह अत्यन्त गद्गद् हो उठा तथा वह राजा से इतना ही कह सका कि “हे स्वामिन् ! आज आपका यह दास धन्य हो गया।" रइधू-साहित्य का अध्ययन करने से स्पष्ट विदित होता है कि उन्हें गोपाचल की भूमि अत्यन्त सुखद एवं शांत लगती थी। यही कारण है कि उनके विशाल-साहित्य का बहुभाग वहीं बैठकर लिखा गया। अपनी प्रशस्तियों में कवि ने स्थान-स्थान पर गोपाचल की प्रशंसा करते हुए उसे एक व्यक्ति के समान ही', 'पण्डितश्रेष्ठ', 'श्रेष्ठतम नगरों का महागुरु', 'स्वर्ग का गुरु', 'कुबेर-नगरी', 'इन्द्रपुरी', 'महापण्डित', 'गुरुणां गुरु' कहकर उसके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। उसके साहित्य, संगीत एवं कला-वैभव से एक फारसी कवि-फकीरुल्ला भी इतना प्रभावित हुआ था कि उसने गोपाचल को भारत का 'शीराज (ईरान का साहित्य एवं कला का तीर्थ एवं अत्यन्त सुन्दर एवं समृद्ध नगर) कहा था। रइधू ने उस भूमि को सम्भवत: तीर्थभूमि बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था, ऐसा उसकी प्रशस्तियों से विदित होता है। रइधू के 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' से ज्ञात होता है कि रइध कवि होने के साथ-साथ प्रतिष्ठाचार्य पण्डित भी थे। गोपाचल की विशाल आदिनाथ की मूर्ति के लेख से भी यह स्पष्ट है कि उसकी प्रतिष्ठा उन्हीं के द्वारा सम्पन्न की गई थी तथा प्रतिष्ठा के समय वहाँ एक विशाल प्रतिष्ठा-समारोह का आयोजन भी कराया गया था। गोपाचल-दुर्ग में बहुसंख्यक जैनमूर्तियों का क्रमश: निर्माण कराया गया। रइधू के अनुसार उन्हें गिनने में इन्द्र भी असमर्थ था। महाकवि रइधु ने अपनी प्रशस्तियों में 0024 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)

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