Book Title: Prakrit Vidya 2003 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ एक महामन्त्री था कमलसिंह संघवी। वह जिनवाणी-भक्त स्वाध्याय-प्रेमी था। अत: महाकवि रइधू से देखिए, वह कितना भावविह्वल होकर विनम्र प्रार्थना करता है। वह कहता है : “हे कविवर ! शयनासन, हाथी, घोड़े, ध्वजा, छत्र, चमर, सुन्दर-सुन्दर रानियाँ, रथ, सेना, सोना, धन-धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर, देश, ग्राम, बन्धु-बान्धव, सुन्दर-सन्तान, पुत्र-भाई आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं। सौभाग्य से किसी प्रकार की भौतिक-सामग्री की मुझे कमी नहीं है; किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक चीज का अभाव सदैव खटकता रहता है और वह यह कि मेरे पास काव्यरूपी एक भी सुन्दर-मणि नहीं है। इसके बिना मेरा सारा ऐश्वर्य फीका-फीका लगता है। हे काव्यरूपी रत्नों के रत्नाकर ! तुम तो मेरे स्नेही बालमित्र हो, तुम्ही हमारे सच्चे पुण्य-सहायक हो। मेरे मन की इच्छा पूर्ण करनेवाले हो। यद्यपि यहाँ पर बहुत से विद्वत्जन रहते हैं, किन्तु मुझे आप जैसा कोई भी अन्य सुकवि नहीं दिखता। अत: हे कविश्रेष्ठ ! मैं अपने हृदय की गाँठ खोलकर सच-सच अपने हृदय की बात आपसे कहता हूँ कि आप एक काव्य की रचना करके मुझ पर अपनी महती कृपा कीजिए।" महाकवि रइधू ने कमलसिंह की प्रार्थना स्वीकृत करते हुए कहा—"हे भाई कमलसिंह ! तुम अपनी बुद्धि को स्थिर करो, तुमने जो विचार प्रकट किये हैं, वे तुम्हारे ही अनुरूप हैं। अब चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं, प्रसन्नचित्त बनो। मैं तुम्हारी इच्छानुसार ही तुम्हारे लिए काव्यरचना कर दूंगा। जन्म-जन्मान्तर में तुम इसीप्रकार स्वर्ण, धन-धान्य, रत्नों एवं हीरा-माणिक्यों से समृद्ध बने रहो तथा दुर्लभता से प्राप्त इस धर्म एवं मानव-जीवन में हितकारी उच्च-कार्यों को भी सदा करते रहो।" - आनन्द-विभोर होकर, गोपाचल-दुर्ग में गोम्मटेश्वर (श्रवणबेल्गोला, कर्नाटक) के समान आदिनाथ की विशाल खड्गासन-मूर्ति के निर्माण कराने की भावना लेकर वह (मन्त्री कमलसिंह) राजा डूंगरसिंह के राजदरबार में पहुँचता है और शिष्टाचारपूर्वक विनम्र प्रार्थना करता है :____हे राजन् ! मैंने कुछ विशेष-धर्मकार्य करने का विचार किया है, किन्तु उसे कर नहीं पा रहा हूँ; अत: प्रतिदिन मैं यही सोचता रहता हूँ कि अब वह आपकी कृपापूर्ण सहायता एवं आदेश से ही सम्पूर्ण करूँ; क्योंकि आपका यश एवं कीर्ति अखण्ड एवं अनन्त है। मैं तो इस पृथ्वी. पर एक दरिद्र एवं असमर्थ के समान हूँ। इस मनुष्य-पर्याय में मैं कर ही क्या सका हूँ।" राजा डूंगरसिंह का पुत्र राजकुमार कीर्तिसिंह भी समीप में बैठा था। वह भी कमलसिंह के विचार सुनकर पुलकित हो उठा। डूंगरसिंह, कमलसिंह को जो आश्वासन भरा उत्तर देता है, वह निश्चय ही भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम-सन्दर्भ है। उससे प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 00 23

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116