Book Title: Prachin Karmgranth Satik
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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षडशीतिप्रकरणम्
॥१९६॥
क्षीणमोहयोः प्रत्येक नवधा भवति, अष्टौ मनोवाचः औदारिककाययोगश्चेति ९ तथा सयोगिकेवलिनस्तु टीकाद्वयोयोगः सप्तधा भवति, पूर्वोक्तनवकमध्यान्मृषामिश्ररूपे मनोदये एवं वारद्वये चापनीते औदारिकमिश्रका- पेतम् ॥ मणे च क्षिप्ते सति । तथाऽयोगी तु प्रत्ययाभावादवन्धकः । अयमों गाथाभिरपि कथ्यते शिष्यानुग्रहार्थम्-"आहारगदुगहीणा, पणवन्ना होइ मिच्छदिद्विम्मि ५५ । सा मिच्छपणगहीणा, पन्नासा तह य सासाणे ५०॥१॥सा चउणंतकसाया ४, ओरालविउव्विमीसकम्मइगं । इय सत्तगेण रहिया, तेयाला मीसगुणठाणे ४३ ॥२॥ ओरालियवेउब्वियमीसदुगं तह य कम्मणसरीरं । एय तिगेणं सहिया, अविरयसंमंमि छायाला ४६ ॥३॥ ओरालमीसकम्मणचउघीयकसायतसअविरई य । इय सत्तगेण रहिया, इगुयाला देसविरइयंमि ३९॥४॥ तइयकसायचउकं, एक्कारस अविरई य मोसूण । आहारगदुगसहिया, पमत्तसाहुस्स छब्बीसा २६ ॥५॥ विउवाहारगमीसगरहिया चउवीस होइ अपमत्ते २४ । आहारगवेउब्वियहीणदुवीसा अपुवंमि २२॥६॥हासाइछक्करहिया, सोलस अनियहिबायरे होंति १६ । संजलणवेयतियतियरहिया इह होंति दस सुहमे १०॥७॥ उवसंते ९ तह खीणे ९, नव नव हेऊ य लोहपरिहीणा। दोमणदोवइरहिया, कम्मणओरालमीसजुया ॥८॥ एवं सत्त सजोगे७, एए सव्वे न हुंतऽजोगंमि । चउदस
x ॥८ ॥ गुणठाणेसुं, पणवनिच्चाइ वक्खायं ॥९॥” इति गाथार्थः ॥७७॥ इत्युक्ता बन्धहेतवः । अधुना येषां कर्मणामेते बन्धहेतवस्तेभ्यस्तेषां बन्धं दर्शयन् संख्या विशिष्टानि तान्याह
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