Book Title: Prachin Karmgranth Satik
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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पडशीति
भाग्यम्।
॥१९॥
ALSACREASERECE
॥ अहम् ॥
॥ षडशीतिभाष्यम् ॥ जीवाइपयत्थेसुं, जिणोवइडेसु जा अ सद्दहणा । सद्दहणावि य मिच्छा, विवरीयपरूवणा जा य ॥१॥ संसयकरणं जं पि य, जो तेसु अणायरो पयत्थेसु । तं पंचविहं मिच्छं, तद्दिट्ठी मिच्छदिट्ठी य ॥२॥ उवसमअद्धाइ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणो । सम्मं आसायंतो, सासायणगो मुणेयबो ॥३॥ जह गुडदहीणि विसमाइभावसहियाणि हुंति मिस्साणि । भुंजंतस्स तहोभय, तद्दिट्ठी मिस्सदिट्ठी य ॥४॥ तिविहे वि हु सम्मत्ते, थोवावि न विरइ जस्स कम्मवसा । सो अविरउ त्ति भण्णइ, देसो पुण देसविरईए ॥५॥ विकहाकसायनिदासदाइरओ भवे पमत्तु त्ति । पंचसमिओ तिगुत्तो, अपमत्तजई मुणेयवो ॥६॥ अप्पुवं अप्पुवं, जहुत्तरं जो करेइ ठिइखंडं । रसखंडं तग्घायं, सो होइ अपुवकरणु त्ति ॥ ७॥ विणिवटुंति विसुद्धिं, समयपविट्ठावि जत्थ अनुन्नं । तं तु नियहिट्ठाणं, विवरीयमओ य अनियट्टि ॥८॥ थूलाण लोभखंडाण वेयओ वायरो मुणेयहो । सुहुमाण होइ सुहुमो, उवसंतेहिं तु उवसंतो ॥९॥ खीणमि मोहणीए, खीणकसाओ स [जोग] जोगि त्ति । होइ पउत्ता य तओ, अपउत्ता होइ हु अजोगि॥१०
॥१९॥
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