Book Title: Prachin Karmgranth Satik
Author(s): Jain Atmanand Sabha
Publisher: Jain Atmanand Sabha
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कर्मग्रंथः।
कर्मविपाकः
॥३॥
सनिमित्तऽनिमित्तं वा, जंहासं होइ इत्थ जीवस्स । सो हासमोहणीयस्स होइ कम्मस्स उ विवागो ॥५५॥ सञ्चित्ताचित्तेसु य, बाहिरदत्वेसु जस्स उदएणं । होइ रई रइमोहे, सो' उ विवागो वियाणाहि ॥ ५६ ॥ सचित्ताचित्तेसु य, बाहिरदत्वेसु जस्स उदएणं । अरई होइ हु जीवे, सो उ विवागो अरइमोहे ॥ ५७॥ भयवजियंमि जीवे, जस्सिह उदएण हुंति कम्मस्स । सत्चवि भयठाणाई, भयमोहे सो विवागो उ ॥ ५८ ॥ सोगरहियंमि जीवे, जस्सिह उदएण होइ कम्मस्स । अकंदणाइसोगो, तं जाणह सोगमोहणियं ॥ ५९॥ दुग्गंधमलिणगेसु य, अभितरबाहिरेसु दवेसु । जेण विलीयं जीवे, उप्पजइ सा गुंछा उ ॥६॥ छण्हवि होई विवागो, मिच्छाओ जा अपुत्वकरणस्स। चरमसमउत्ति परओ, नत्थि विवागो उ छण्हं पि॥६१॥ भणिओ मोहविवागो, आउयकम्मं तु पंचमं भणिमो। 'तं होइ चउपयारं, नरतिरिमणुदेवभेएहिं ॥६२॥ दुक्खं न देइ आउं, नेय सुहं देइ चउसुवि गईसु । दुक्खसुहाणाहारं, धरेइ देहट्टियं जीवं ॥ ६३॥ जं नेरइयं नारयभवम्मि तहिं धरइ उध्वियंतं पि । जाणसु तं निरयाउं, हडिसरिसो तस्स उ विवागो ॥६४॥ एवं तिरियं मणुयं, देवं तिरियाइएसु भावेसु । जं धरइ तब्भवगयं, तं तर्सि आउयं भणियं ॥६५॥
१"तं तु विवागं वियाणाहि" "सो उ विवागो मुणेयव्वो" इति । २ "जाण" इति । ३ "सभितर-" इति । ४ "दुर्गछा य" इति । ५ "जाण" इति । ६""। "तं पि हु" इति । ८ "भेएसु" इति ॥
RSASAKARSA
॥
३
॥
RACK
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476