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( ४२ )
कूल परिणाम वर्धता, एतो अनुभवे ज्ञानी संतारे. चारित्र ॥४॥ मैत्री प्रमोदने माध्यस्थजावे, करुणाए हृदय शुद्ध थावेरे; चारित्र० निर्मम निरहंकारे प्रणामे, सत्य प्रतिबद्धता जामेरे, चारित्र ॥ ५ ॥ अस्तेय ब्रह्मचर्य संतोषे, तजी व्यसनने सद्गुण पोषेरे. चारित्र मित्र शत्रुपर राग न रोष, नहीं निन्दक दृष्टिनो दोषरे. चारित्र ॥ ६ ॥ तृण मणिपर समभावनी वृत्ति, रहे मनमां न विषयासक्तिरे; चारित्र०
वे अनुभव सुखनी खुमारी, थाय कर्मों सकल उपकारीरे. चारित्र ॥ ७ ॥ थाय परमार्थनी योग प्रवृत्ति, दोष अपने बहुधर्मनीतिरे. चारित्र कर्म करे पण मोहे न एमां, फल आशा रहे नहीं तेमांरे, चारित्र ॥ ८ ॥ अतिचार दोष प्रगट्या वारे, मळ्यो मानव जव नहीं हारेरे. चारित्र० शुद्ध उपयोगथी आत्म प्रकाशे, शुभ अशुभ न मनमां भासेरे. चारित्र ॥ ९ ॥ पूजो गावोने मनमां ध्यावो, लेवो चारित्रनो सत्य
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