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( १६० ) षष्ठी ध्यान क्रिया.
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आत्म शुद्धि जेथी यती, ते छे उज्वल ध्यान; धर्म शुक्ल बे ध्यानथी, प्रगटे केवलज्ञान. ॥ १ ॥ मनथी ध्यान क्रिया थती, ध्यानथी कर्म विनाश; कर्म विनाशथी मुक्ति छे, मुक्ति अनंत सुखवास ॥ २ ॥ पिंकस्थादिक ध्यानथी, अक्रिय थावो जव्यः रागद्वेषादिक विना, अक्रियता कर्तव्य. ॥ ३ ॥
ध्यान क्रिया मनमां आणी जे. ए-राग.
ध्यान करो भवी भाव धरीने, प्रभु महावीर प्रकाशेरे; अरिहंत यादि ध्यान धरंतां, गुण पर्याय विकासरे, ध्यान० ॥ १ ॥ ध्याता ध्येयने ध्याननी एकता, योगे पूर्ण समाधिरे; नामने रूपनो मोह रहे नहीं, विघटे उपाधि आधिरे. ध्यान० ॥ २ ॥ शुद्धोपयोगे प्रभु महावीर, रंगरसे जे रसियोरे; क्षण क्षण प्रभुरसरंगे रीझे, चढता जावे उल्लसि
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