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(१००) मूर्छा त्यागी; अंतर बाहिर ममता रहित थै, वर्ते छे वडभागो हो. मुनिवर ॥ परिग्रहः ॥१॥ नवविध परिग्रहमां नहि ममता, वर्ते सकल पर समता; देहादिक गच्छ संगी उतां पण; निःसंग ज्ञाने रमता हो. मुनिवर० ॥२॥ साधन उपयोगी उपधि सहु, ज्ञानी न त्यां बंधाता; तास तरे जेम सरवरमांही, संवर नावे सुहाता हो. मुनिवरण ॥ ३ ॥ मूर्छा ए छे सर्वे उपाधि, मूर्छावण निरुपाधि; ज्ञानीने आस्रव पण संवर, उपयोगे नहि आधि हो. मुनिवर० ॥ ४ ॥ जडमां शुनाशुभ भाव रहित जे, ते नहि जग बंधातो; बाह्य परिग्रह तेने करे शुं ? जे नहीं पुद्गले रातो हो. मुनिवर ॥५॥ ममतावण नहीं कर्मबंध छे, ममता त्यागे त्यागी; जडनी ममता त्यागी सुज्ञाने, थाशो आतमरागी हो. मुनिवर० ॥ ६ ॥ यावत् मूर्छा अंतर तावत्, कोइ न मुक्ति पामे, मूळवण मणि पर्वत उपर, बेठो ठरे शिव ठामे हो. मुनिवरण ॥ ७॥ परिग्रह त्यागी मुनिवर सेवा,
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