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भाण्डलिकों के बारे में ज्ञात होता है:- प्रथम, वे माण्डलिक थे जिनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर नरेश किसी प्रदेश का प्रान्तपाल नियुक्त कर देता था । उदाहरणार्थ, नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय के अधीन चाहमानवंशीय साधनिक अनयसिंह को जागीर प्रदान की गई थी। साधनिक वस्तुतः अश्वशा का प्रमख अधिकारी होता था। अनेक बार श्रेष्ठ अश्वों के कारण युद्ध का निर्णय स्वतः के हो जाता था । प्रतीत होता है कि अनयसिंह के पूर्वज भी परमार नरेशों की सेवा में थे एवं उपभोग करते थे। परमार राज्य में सामान्य नियम यह था कि कतिपय प्रमुख अधिकारियों को, उनकी विशिष्ट सेवाओं के बदले, नकद धन न देकर उपहार स्वरूप जागीर दे दी जाती थी अपने क्षेत्र से राजस्व उगहा कर उसका निर्धारित अंश अपने पास रख कर शेष धन राजकोष में जमा करवाता था।
_ द्वितीय, वे माण्डलिक होते थे जो यद्यपि राजघराने के राजकुमार थे परन्तु उन लोगों ने राज्यसीमा के बाहर अपने बाहुबल से स्वयं के लिए कुछ प्रदेश विजित कर अपने अधीन कर लिए। ये राज्य प्रायः छोटे व निर्बल होते थे। अतएव राजवंशीय नरेश की अधीनता में ये राजकुमार नवीन प्रदेश का शासन संभालते थे। ऐसे माण्डलिकों में बागड, किराडू एवं जालोर के परमार घराने आते थे । तीसरी प्रकार के वे माण्डलिक थे जिन्होंने परमार राजवंश के आन्तरिक झगड़ों के कारण समय का लाभ उठाकर अपने लिए जागीरें बना लीं। इस श्रेणी में परमार महाकुमारों को रखा जा सकता है। ये लोग महाकुमार एवं पंचमहाशब्दालंकार की कनिष्ठ उपाधियों का उपयोग करते थे। अनेक बार ये राजवंशीय नरेश का नाम तक अपने अभिलेखों में नहीं लिखते थे। इससे इनकी शक्ति का अनुमान होता है। ये कनिष्ठ नरेश परमार राजवंश के पतन के वर्षों में विशेष रूप से उभरे। चौथी प्रकार के वे माण्डलिक थे जिनको परमार नरेशों ने युद्ध में परास्त कर अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया था। परन्तु इस श्रेणी के माण्डलिक सदा समय अनुकल होने पर स्वतंत्र होने का प्रयत्न करते थे। इस कारण उनको अपने अधीन रखने हेतु शक्ति का निरन्तर प्रदर्शन करते रहना आवश्यक होता था। ऐसे उदाहरणों में वाक्पति द्वितीय के शासन काल में मेवाड़ के गुहिलवंशीय राजकुमार थे जो युद्ध में पराजित होने पर उसके अधीन हो गए थे परन्तु भोज प्रथम की मत्यु हो जाने पर समय अनुकूल देख पुनः स्वतंत्र हो गए।
उपरोक्त सभी प्रकार के माण्डलिक सामान्यतः परमार नरेशों की अधीनता स्वीकार कर समय समय पर उपहार प्रदान करते थे, त्यौहारों तथा विशिष्ट अवसरों पर भेंट देते थे, वाषिक कर अदा करते थे, युद्ध के समय धन-धान्य व सेना से नरेश की सहायता करते थे तथा स्वयं राजदरबार में उपस्थित होते थे। केन्द्रीय शक्ति के प्रबल होने पर उपरोक्त सभी बातें स्वयमेव पूरी होती रहती थीं। माण्डलिक अपने प्रभु नरेशों का नाम भी अपने अभिलेखों व अन्य दानपत्रों में अंकित करते थे। परन्तु केन्द्रीय शक्ति के दुर्बल होते ही सभी बातों में ढील हो जाती थी। केवल इतना ही नहीं, कतिपय माण्डलिक तो अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा तक कर देते थे।
कुछ सामन्त अपने क्षेत्र में एक कनिष्ट राजा के समान शासन करते, अपना दरबार लगाते, अपने अधीन कुछ जागीरदार रखते तथा उनसे कर व भेंटें स्वीकार करते थे। परन्तु वे सामन्त इस प्रकार का व्यवहार प्रभु नरेश की अनुमति से ही करते थे। ऐसे सामन्तों के लिए राजदरबार में विशेष स्थान होता था। स्वयं नरेश भी उनको समय समय पर अपने हाथों सम्मानित करते थे। सैन्य व्यवस्था
परमार नरेशों की सेना में प्रायः दो प्रकार के सैनिक होते थे-मौल एवं भृत्य । प्रतीत होता है कि मौल सैनिक नरेश द्वारा प्रदान की गई भूमि पर निर्भर रहते थे। इस कारण मौल सैनिक स्थायी
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