Book Title: Panchvastuka Granth
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 534
________________ आवश्यक श्रीपञ्चव. २ प्रतिदि. नक्रिया द्वारं ॥२५८॥ जा देवसिअं दुगुणं चिंतेइ गुरू अहिंडिओ चिट्ठ । बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चिंतिंति ॥४५॥ मुहणंतगपडिलेहणमाईअंतस्थ जे अईआरा । कंटकवरगुवमाए धरंति ते णवरि चित्तंमि ॥ ४५१॥ संवेगसमावण्णा विसुद्धचित्ता चरित्तपरिणामा। चारित्तसोहणट्ठा पच्छावि कुणंति ते एअं॥४५२॥ नमुक्कार चउच्चीसग कितिकम्माऽऽलोअणं पडिक्कमणं। किइकम्म दुरालोइअ दुपडिक्कते य उस्सग्गा ॥ ४५३॥ (सूअगाहा) । उस्सग्गसमत्तीए नवकारेणमह ते उ पारिति । चउवीसगंति दंडं पच्छा कडंति उवउत्ता ।। ४५४ ॥ संडंसं पडिलेहिअ उवविसिअ तओ णवर मुहपोत्ति । पडिलेहिउँ पमजिय कायं सत्वेऽवि उवउत्ता ॥४५॥ किइकम्मं वंदणगं परेण विणएण तो पउंजंति । सवप्पगारसुद्धं जह भणि वीअरागेहिं ॥४५६॥ आलोयण वागरणस्स पुच्छणे पूअणंमि सज्झाए। अवराहे अ गुरूणं विणओमूलं च वंदणयं ॥४५७॥ वंदित्तु तओ पच्छा अद्धावणया जहक्कमेणं तु । उभयकरधरियलिंगा ते आलोअंति उवउत्ता॥ ४५८॥ परिचिंतिएऽइआरे सुहुमेऽवि भवण्णवाउ उविग्गा । अह अप्पसुद्धिहेउं विसुद्धभावा जओ भणियं ॥४५९॥ विणएण विणयमूलं गंतूणायरिअपायमूलंमि । जाणाविज सुविहिओ जह अप्पाणं तह परंपि ॥ ४६०॥ कयपावोऽवि मणूसो आलोइअनिदिओ गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ ओहरिअभरोध भारवहो ॥४६१॥ दुप्पणिहियजोगेहिं बज्झइ पावं तु जो उ ते जोगे। सुप्पणिहिए करेई झिजइ तं तस्स सेसंपि ॥ ४६२॥ अवराई ॐॐॐॐॐॐ ॥२५८॥ पावोजविणयमूलं गमवि भवणकमेणं Jain Educat i onal For Private & Personal Use Only AAJainelibrary.org

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