Book Title: Panchvastuka Granth
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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श्रीपञ्चव.
३ गणा
गुणा
॥ २९२ ॥
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अवोच्छित्तमण पंच तुलण उवगरणमेव परिकम्मो ।
तवसत्तमुपगत्ते उवसग्गसंहे अ वडरुक्खे ॥ १३७१ ॥ दारगाहा ||
सो पुछारकाले जागरमाणो उ धम्मजागरिअं । उत्तमपसत्थझाणो हिअएण इमं विचिंतेइ ।। १३७२ ।। अणुपालिओ उ दीहो परिआओ वायणा तहा दिण्णा । णिव्काइआ य सीसा मज्झं किं संपयं जुत्तं ? ॥ १३७३ ॥ किं णु विहारेणऽभुजण विहरामऽणुत्तरगुणेणं । आऊ अब्भुज्जयसासणेण विहिणा अणुमरामि ॥ १३७४ ॥ पारद्वावोच्छिती इहि उचिअकरणा इहरहा उ । विरसावसाणओ णो इत्थं दारस्स संपाओ ॥ १३७५ ॥ दारं जिणसुद्धजहालंदा तिविहो अब्भुजओ इह विहारो । अब्भुजयमरणंपि अ पाउगमे इंगिणि परिण्णा ॥ १३७६ ॥ सयमेव आउकालं णाउं पुच्छित्तु वा बहुं सेसं । सुबहुगुणला भकखी विहारमभुज्जयं भयई ॥ १३७७ ॥ गणिवझायवित्त थेरगणच्छे हुआ इमे पंच । पायमहिगारिणो इह तेसिमिमा होइ तुला उ ॥ १३७८ ॥ गणणिक्खे वित्तिरिओ गणिस्स जो वा ठिओ जहिं ठाणे । जो तं अप्पसमस्स उ णिक्खिवई इत्तरं चैव ॥ १३७९ ॥ पिच्छामु ताव एए केरिसया होंतिमस्स ठाणस्स ? । जोग्गाणवि पाएणं णिवहणं दुक्करं होइ ॥ १३८० ॥ णय बहुगुणचाणं थेवगुणपसाहणं वुहजणाणं । इट्ठे कयाइ कजं कुसला सुपइट्टि आरंभा ।। १३८१ ॥ द्वारं ॥ उवगरणं सुद्धेसणमाणजुअं जमुचिअं सकप्पस्स । तं गिन्हइ तयभावे अहागडं जाव उचिअं तु ॥ १३८२ ॥ जाए उचिए अ त वोसिरह अहागडं विहाणेण । इअ आणा निरयस्सिह विण्णेअं तंपि तेण समं ॥ १३८३ ॥
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अभ्युद्यतः विहारे प रिकर्म
॥ २९२ ॥
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