Book Title: Panchvastuka Granth
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 607
________________ पञ्चव. ५० Jain Education International उच्चारे पासवणे उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे । तत्थेव य परिजुग्णे कप किचो उज्झई वत्थे ॥ १४३५ ॥ दारं ॥ अममत्ताsपरिकम्मा दारबिल भंगजोगपरिहीणा । जिणवसही थेराणवि मोत्तूण पमजणमकज्जे ॥ १४३६ ॥ दारं ॥ चिरकालं वसहिह एवं पुच्छंति जायणासमए । जत्थ गिही सा वसही ण होइ एअस्स णिअमेण ॥ १४३७ ॥ नो उच्चारो एत्थं आयरिअवो कयाइदवि जत्थ । एवं भणंति साविहु पडिकुट्ठा चेव एअस्स ॥ १४३८ ॥ दारं ॥ पासवर्णपि अ एत्थं इमंमि देसंमि ण उण अन्नत्थ । कायति भणती हु जाए एसावि णो जोग्गा ॥ १४३९ ॥ दारं ॥ ओवासोऽवि हु एत्थं एसो तुज्झति न पुण एसोत्ति । अवि भणति जहिअं सावि ण सुद्धा इमस्स भवे ॥। १४४० ॥ दारं ॥ एवं तणफलगेसु अ जत्थ विआरो तु होइ निअमेणं । एसावि हु दवा इमस्स एवंविहा चेव ॥ ९४४१ ॥ दारं ॥ सारक्खणत्ति तत्थेव किंचि वत्थुमहिगिच गोणाई । जाए तस्सा रक्खणमाह गिही सावि हु अजोगा || १४४२ ॥ संठवणा सक्कारो पडमाणीए णुवेहमो भंते ! | कायति अ जीएवि भणइ गिही सा वऽजोग्गति ।। १४४३ ॥ दारं ॥ अण्णं वा अभिओगं चसद्दसंसूइअं जहिं कुणइ । दाया चित्तसरूवं जोगा सावि एअस्स || १४४४ ।। दारं ॥ For Private & Personal Use Only %%%% % % 4x www.jainelibrary.org

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