Book Title: Panchvastuka Granth
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 608
________________ श्रीपञ्चव. ३ गणाशुण्णा ।। २९५ ॥ Jain Education International पाहुडिआ जीऍ बली कज्जह ओसक्कणाइअं तत्थ । farara ठाण सउणा अग्गहणे अंतरायं च ।। १४४५ ।। दारं ॥ अग्गित्ति साऽगिणी जा पमजणे रेणुमाइवाघाओ । अपमज्जणे अकिरिआ जोईफुसणंमि अ विभासा ॥। १४४६ ॥ दारं ॥ दीवत्ति सदीया जातीऍ विसेसो उ होइ जोइम्मि । एत्तो चिअ इह भेओ सेसा पुवोइआ दोसा ॥। १४४७ ॥ दारं ओहाणं अम्हाणवि गेहस्सुवओगदायगो तंसि । होहिसि भणति ठंते जीए एसावि से ण भवे ।। १४४८ ॥ दारं । तह कइ जत्ति तुम्हे वसहिह एत्थंति एवमवि जीए । भइ गिeasyण्णाए परिहरए णवरमेअंपि ।। १४४९ ।। दारं । सुहममवि हु अचिअत्तं परिहरएसो परस्स निअमेणं । जं तेण तुसद्दाओ वज्जड़ अण्णंपि तजणणीं ।। १४५० ।। दारं । भिक्खाअरिआ णियमा तइआए एसणा अभिग्गहिआ । एअस्स पुत्रभणिआ एक्काविअ होइ भत्तस्स ॥ १४५१ ॥ दारं । पाणगगहणं एवं ण सेसकालं पओअणाभावा । जाणइ सुआइसयओ सुद्धमसुद्धं च सो सवो ॥ १४५२ ॥ दारं । For Private & Personal Use Only जिनकल्पः ॥ २९५ ॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630