Book Title: Panchvastuka Granth
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 587
________________ ACCOCAKACESSAGAGAICROG इय मद्दवाइजोगा पुढविक्काए हवंति दस भेआ। आउक्कायाईसुवि इअ एअंपिंडिअंतु सयं ॥११६७॥ सोइंदिएण एअं सेसेहिवि जं इमं तओ पंच । आहारसण्णजोगा इअ सेसाहिं सहस्सदुगं ॥११६८॥ एवं मणेण वइमाइएसु एअंति छस्सहस्साई। न करण सेसेहिंपि अ एए सवेऽवि अट्ठारा ॥११६९ ॥ एत्थ इमं विणेअं अइअंपज्जं तु बुद्धिमंतेहिं । एकपि सुपरिसुद्धं सीलंगं सेससम्भावे ॥ ११७० ॥ एक्को वाऽऽयपएसो संखेअपएससंगओ जह उ । एअंपि तहा णेअं सतत्तचाओ इहरहा उ ॥ ११७१ ॥ जम्हा समग्गमेअंपि सबसावजजोगविरईओ । तत्तेणेगसख्वं ण खंडरूवत्तणमुवेइ ॥ ११७२॥ एअं च एत्थ एवं विरईभावं पडुच्च दडवं । ण उ बज्झपि पवित्तिं जं सा भावं विणावि भवे ॥ ११७३ ॥ जह उस्सग्गंमि ठिओ खित्तो उदगम्मि केणवितवस्सी। तवहपवित्तकाओ अचलिअभावोऽपवत्तोअ॥११७४॥ एवं चिअ मज्झत्थो आणाई कत्थई पयतो । सेहगिलाणादिष्ट्ठा अपवत्तो चेव नायवो ॥११७५ ॥ आणापरतंतो सो सा पुण सवण्णुवयणओ चेव । एगंतहिआ विजगणाएणं सबजीवाणं ॥ ११७६ ॥ भावं विणावि एवं होइ पवित्तीण बाहए एसा । सवत्थ अणभिसंगा विरईभावं सुसाहुस्स ॥ ११७७॥ उस्सुत्ता पुण बाहइ समइविगप्पसुद्धावि णिअमेणं । गीअणिसिद्धपवजणरूवा णवरं णिरणुबंधा ॥ ११७८॥ इअरा उ अभिणिवेसा इअरा ण य मूलछिजविरहेणं। होएसा एत्तोच्चिअ पुवायरिआ इमं चाहु ॥ ११७९॥ गीअत्थोउ विहारो बिहओ गीअस्थमीसिओ भणिओ। एत्तो तइअविहारोणाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥११८०॥ ***OSAAMAAAAAAAAA Jain Educa For Private Personal Use Only Mirma.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630