Book Title: Padarth Prakash 22 Yatidin Charya
Author(s): Vijayhemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust

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Page 208
________________ श्रीयतिदिनचर्या अवचूर्णियुता विद्यादयः पञ्च दोषाः, यदाहुः - "इय वुत्ता सुत्ताओ बत्तीस गवेसणेसणादोसा / गहणेसणदोसे दस लेसेण भणामि ते य इमे // 1 // " // 91 // दोसा संकाइ संकिय मक्खियं महुदगाइसंसिटुं / तसथावरेसु ठवियं अचित्तमवि होइ निक्खित्तं // 12 // पिहियं सचित्तथगियं साहरियं भायणट्ठियमजोगं / निक्खिविऊण सचित्ते वियर जं तेण पत्तेण // 13 // दायगयं जं दिन्नं निगडिय कंपंत पाउयठिएहिं / बालथविरंधपंडगमत्तकुणिखंजजरिएहिं // 14 // खंडगपीसगलोढगपिंजगकत्तगविलोडगाईहिं / वेलामासवईए सबालवच्छाइ इत्थीए // 15 // खंडाइकणाइजुयं उम्मिस्सं परिणयं न जं फासुं / महुमाइविलित्तेणं कराइणा देइ तं लित्तं // 16 // छडुंतेण य दिन्नं छड्डियमिय हुंति दोस बायाला / गिहिजइउभयप्पभवा उग्गममाई तहा कमसो // 17 // अथ गवेषणाया दश दोषाः प्ररूप्यन्ते, दोषाणामाधाकर्मादीनां शङ्कायां पिण्डग्रहणे शङ्कितग्रहणे शङ्कितं स्यात्, अस्य चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा - शङ्कितग्रहणं शङ्कितभोगः 1 अशङ्कितग्रहणं शङ्कितभोगः 2 शङ्कितग्रहणमशङ्कितभोगः 3 नि:शङ्कितग्रहणं निःशङ्कितभोगः 4 / अथ मेक्षितं, म्रक्षितं द्वेधा-सचित्ताचित्तयोर्मधूकादिवस्तुनोर्योगात्, संसृष्टंसचित्तम्रक्षितं यत् करादि तत् प्रक्षितमित्यर्थः, तथा त्रसस्थावरेषु स्थापितं समस्तमचित्तमपि-प्रासुकमपि निक्षिप्तं भवति तत्, तत्र वसा द्वीन्द्रिया शङ्किता प्रक्षितं द्वधा- तत् प्रक्षितमित्यवति तत्, तत्र

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