Book Title: Padarth Prakash 22 Yatidin Charya
Author(s): Vijayhemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust

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Page 220
________________ श्रीयतिदिनचर्या अवचूर्णियुता 197 पठति, चैत्यवन्दनां करोति इत्यर्थः, पश्चात्संवरणपूर्वं मुखवस्त्रिकां प्रतिलिख्य वन्दनकं ददाति, तत्र च प्रत्याख्यानं करोति, ततोऽपि पात्रकाणि मार्जयित्वा-भाजनानि जलबिन्दुरहितानि कृत्वा स्थापयेत् यावत् प्रतिलेखनासमयः-तृतीयप्रहरप्रतिलेखनाकालः स्यात्, यदाहुः"विहिणा जेमिय उट्ठिय इरियं पडिक्कमिय भणइ सक्कथयं / पुत्तिं पेहिय वंदणमिह दाउं कुणइ संवरणं // 1 // सोहिय पत्ताबंधे सम्म निम्मज्जियाणि पत्ताणि / बंधित्तु तेण ठाविज्ज होइ पडिलेहणं जाव // 2 // कहवि हु पमायवसओ पत्ताबंधो खरंटिओ हुज्जा / पडलाणि अहव कप्पा कप्पिज्जसु ताणि जयणाए // 3 // पढमं लूहिज्जंते चीवरखंडेण जेण पत्ताणि / तं निच्चं धोविज्जसु अन्नह कुच्छाइया दोसा // 4 // " अथैवं पात्रकाणि निधाय बहिर्भूमिकृत्यं कुर्यात् तद्गाथाद्वयेनाह - अह बाहिरभूमीओ दिसाइ ईसाणजम्मवज्जाए। गंतूणमसंलोए जणस्स मत्तगनिहियनीरो // 113 // पुट्ठिमदेंतो पुररविवायाणं थंडिलं च संडासे / पेहिय अणुजाणाविय उच्चाराई जई कुणइ // 114 // अथानन्तरं कृतभोजनानन्तरं तृतीययामपौरुष्यन्तः बहिर्भूमि गच्छति, तत्र - बहिर्भूमौ ईशानयमवर्जितायां दिशि गत्वा, ईशानविदिग्-दक्षिणादिग्रहितां दिशं गत्वा, जनस्य-लोकस्यासंलोकेसम्मर्दरहिते मात्रके-तृप्तिकरे न्यस्तनीरः-प्रक्षिप्तजलो नगरसूर्यवातानां - पुरतपन-वनानां त्रयाणां पृष्ठिमददत् सण्डासेन सप्रकाशे स्थण्डिलं

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