Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ न्याय-दीपिका अव्यवहितरूपमें ज्ञप्तिक्रियाका साधक उक्त प्रकारका ज्ञान ही है । कारकसाकल्यादि ज्ञप्तिक्रियाके साधक होते हुए भी उसके अव्यवहितरूपसे साधक नहीं हैं इसलिए उन्हें प्रमाण कहना अनुचित है। प्रमाण-मान्यताको स्थान देनेवाले दर्शनोंमें कोई दर्शन सिर्फ प्रत्यक्षप्रमाणको, कोई प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान चार प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति पाँच प्रमाणोंको और कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणोंको मानते हैं। कोई दर्शन एक सम्भव नामके प्रमाणको भी अपनी प्रमाणमान्यतामें स्थान देते हैं। परन्तु जैनदर्शनमें प्रमाणकी इन भिन्न-भिन्न संख्याओंको यथायोग्य निरर्थक, पुनरुक्त और अपूर्ण बतलाते हुए मूलमें प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद प्रमाणके स्वीकार किये गये हैं। प्रत्यक्षके अतीन्द्रिय और इन्द्रियजन्य ये दो भेद मानकर अतीन्द्रिय प्रत्यक्षमें अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका समावेश किया गया है तथा इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों और मनका साहाय्य होनेके कारण स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, चक्षुइन्द्रिय-प्रत्यक्ष, कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष. और मानस प्रत्यक्ष ये छह भेद स्वीकार किये गये हैं । अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके भेद अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानको जैनदर्शनमें देशप्रत्यक्ष संज्ञा दी गई है। कारण कि इन दोनों ज्ञानोंका विषय सीमित माना गया है और केवलज्ञानको सकलप्रत्यक्ष नाम दिया गया है क्योंकि इसका विषय असीमित माना गया है अर्थात् जगत्के सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने त्रिकालवर्ती विवर्ती सहित इसकी विषयकोटिमें एक साथ समा जाते हैं। सर्वज्ञमें केवलज्ञान नामक इसी सकलप्रत्यक्षका सद्भाव स्वीकार किया गया है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षको परमार्थ-प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहा

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