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न्याय-दीपिका
वैदिक और अवैदिक दर्शनोंको दार्शनिक मध्यकालीन युगमें क्रमसे आस्तिक और नास्तिक नामोंसे भी पुकारा जाने लगा था, परन्तु मालूम पड़ता है कि इनका यह नामकरण साम्प्रायिक व्यामोहके कारण वेदपरम्पराके समर्थन और विरोधके आधारपर प्रशंसा और निन्दाके रूपमें किया गया है । कारण, यदि प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिके न माननेरूप अर्थ में नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो जैन और बौद्ध दोनों अवैदिक दर्शन नास्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकल कर आस्तिक दर्शनोंकी कोटिमें आ जायेंगे क्योंकि ये दोनों दर्शन परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिकी मान्यताको स्वीकार करते हैं ।
और यदि जगत्का कर्ता अनादिनिधन ईश्वरको न माननेरूप अर्थमें नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो सांख्य और मीमांसा दर्शनोंकों भी आस्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकालकर नास्तिक दर्शनोकी कोटिमें पटक देना पड़ेगा; क्योंकि ये दोनों दर्शन अनादिनिधन ईश्वरको जगत्का कर्ता माननेसे इन्कार करते हैं । 'नास्तिको वेदनिन्दकः' इत्यादि वाक्य भी हमें यह बतलाते हैं कि वेदपरम्पराको न माननेवालों या उसका विरोध करनेबालोंके बारेमें ही नास्तिक शब्दका प्रयोग किया गया है । प्रायः सभी सम्प्रदायोंमें अपनी परम्पराके माननेवालोंको आस्तिक और अपनेसे भिन्न दूसरे सम्प्रदायकी परम्पराके माननेवालोंको नास्तिक कहा गया है। जैनसम्प्रदायमें जैनपरम्पराके माननेवालोंको सम्यग्दृष्टि और जैनेतर परम्पराके माननेवालोंको मिथ्यादृष्टि कहनेका रिवाज प्रचलित है। इस कथनका तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शनोंका जो आस्तिक और नास्तिक दर्शनोंके रूपमें विभाग किया जाता है वह निरर्थक एवं अनुचित है।'
उल्लिखित सभी भारतीय दर्शनोंमेंसे एक दो दर्शनोंको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनोंका साहित्य काफी विशालताको लिये हुए पाया जाता है । जैनदर्शनका साहित्य भी काफी विशाल और महान है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों दर्शनकारोंने समानरूपसे जैनदर्शनके साहित्यकी समृद्धिमें