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न्याय-दीपिका
उक्त सत्व और असत्व, सामान्य और विशेष, नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व इत्यादि युगलधर्मों और एतद्धर्मविशिष्ट वस्तुके प्रतिपादनमें उक्त परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नय सातरूप धारण कर लिया करते हैं।
प्रमाणवचनके सातरूप निम्न प्रकार हैं-सत्व और असत्व इन दो धर्मोमेंसे सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका पहलारूप है । असत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका दूसरा रूप हैं । सत्व और असत्व उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका तीसरा रूप है । सत्व और असत्व उभयधर्ममुखेन युगपत् (एकसाथ) वस्तुका प्रतिपादन करना असम्भव है इसलिये अवक्तव्य नामका चौथा रूप प्रमाणवचनका निष्पन्न होता है। उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहसे प्रमाणवचनका पाँचवाँ रूप निष्पन्न होता है। इसीप्रकार उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ असत्वमुखेन भी वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरससे प्रमाणवचनका छठा रूप बन जाता है । और उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहसे प्रमाणवचनका सातवाँ रूप वन जाता हैं । जैनदर्शनमें इसको प्रमाणसप्तभंगी नाम दिया गया है।
नयवचनके सात रूप निम्न प्रकार हैं-वस्तुके सत्व और असत्व इन तो धर्मोमेंसे सत्व धर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका पहला रूप है । असत्व धर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका दूसरा रूप है। उभय धर्मोंका क्रमशः प्रतिपादन करना नयवचनका तीसरा रूप है और चूंकि उभयधर्मोंका युगपत् प्रतिपादन करना असम्भव है इसलिये इस तरहसे अवक्तव्य नामका चौथा रूप नयवचनका निष्पन्न होता है। नयवचनके पांचवें, छठे और सातवें रूपोंको प्रमाणवचनके पांचवें, छठे और सातवें