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निर्युक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
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स्थावरकाय-सिद्धि की कुछ गाथाएं हैं। संभव है आचार्य भद्रबाहु ने गोविंदनिर्युक्ति से कुछ गाथाएं ली हों क्योंकि गोविंदाचार्य भद्रबाहु द्वितीय से पूर्व के हैं । दशवैकालिक की दोनों चूर्णियों में भी गोविंद आचार्य के नामोल्लेख पूर्वक यह गाथा मिलती हैभणियं च गोविंदवायगेहिं
काये विहु अज्झप्पं, सरीरवाया समन्नियं चेव । काय-मणसंपउत्तं, अज्झप्पं किंचिदाहंसु । ।
आज स्वतंत्र रूप से गोविंदनिर्युक्ति नामक कोई ग्रंथ नहीं मिलता फिर भी प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोविंद आचार्य ने नियुक्ति लिखी थी, जो आज अनुपलब्ध है । दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी निर्युक्ति
दशवैकालिक सूत्र साध्वाचार का प्रारम्भिक ज्ञान कराने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । उत्कालिक सूत्रों में दशवैकालिक का प्रथम स्थान है । आचारप्रधान ग्रंथ होने से नियुक्तिकार के अनुसार इसका समावेश चरणकरणानुयोग में होता है । दिगम्बर ग्रंथों के अनुसार इसमें साधु के आचार एवं भिक्षाचर्या का वर्णन है । यह आगम - पुरुष की रचना है, इसलिए इसकी गणना आगम ग्रंथों के अंतर्गत होती है।
जैन परम्परा में यह अत्यंत प्रसिद्ध आगम ग्रंथ है। इसके महत्त्व को इस बात से आंका जा सकता है कि इसके निर्यूहण के पश्चात् दशवैकालिक के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाने लगा। इससे पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ा जाता था । दशवैकालिक की रचना से पूर्व साधुओं को आचारांग के अंतर्गत शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन को अर्थतः जाने बिना महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना अर्थात् छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जाता था किन्तु दशवैकालिक की रचना के बाद इसके चौथे अध्ययन (षड्जीवनिकाय) को अर्थतः जानने के बाद महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना दी जाने लगी । प्राचीन काल में आचारांग के दूसरे अध्ययन 'लोक-विजय' के पांचवें उद्देशकगत आमगंध ( २ / १०८) सूत्र को पढ़े बिना कोई भी स्वतंत्र रूप से भिक्षा के लिए नहीं जा सकता था । किन्तु दशवैकालिक के निर्यूहण के पश्चात् पांचवें अध्ययन 'पिंडैषणा' को पढ़ने के बाद भिक्षु पिंडकल्पी होने लगा । " दशवैकालिक ग्रंथ की उपयोगिता इस बात से जानी जा सकती है कि मुनि मनक के दिवंगत होने पर आचार्य शय्यंभव ने इसको यथावत् रखा जाए या नहीं, इस विषय में संघ के सम्मुख विचार-विमर्श किया। संघ ने एकमत से निर्णय लिया कि यह आगम भव्य जीवों के लिए बहुत कल्याणकारी है । भविष्य में भी मनक जैसे अनेक जीवों की आराधना
१. दशजिचू १०९, दशअचू पृ. ५३ ।
२. धवला १/१/१ पृ. ९७, कपा. जयधवला भा. १ पृ. १०९, अंगपण्णत्ति चूलिका गा. २४ ।
३. व्यभा १५३३: आयारस्स उ उवरिं, उत्तरज्झयणाणि आसि दसवेयालियउवरिं, इयाणि किं ते न
पुव्विं तु । होंती उ ।। ४. व्यभा १५३१; पुव्विं सत्यपरिण्णा, अधीतपढिताइ होउवडवणा । एहिं छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा । । बंभचेरे. पंचमउद्देस ५. व्यभा १५३२: बितियम्मि आमगंधम्मि । सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो ।।
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