Book Title: Nirtivad
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satya Sandesh Karyalay

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Page 7
________________ साम्यवाद अव्यवहार्य [३ वाला नहीं है तब वह कम से कम काम करने मूल वात अर्थ की है । आजकल साम्यवाद की कोशिश करेगा । नये नये वहानो का आवि. के आन्दोलन मे आर्थिक साम्य ही मुख्य है । पर प्कार होगा। अगर आप उन बहानो पर ध्यान क्या यह सम्भव है ? यह बात तभी सभव है न देगे तो उस उपेक्षा की चक्की मे सच्चे पीडित (१) जव प्रत्येक मनुष्य की आमदनी एक समान भी पिस जायगे । नकली बीमारो के साथ असली हो (२) उसका खर्च भी एक समान हो बीमार भी पिस जॉयेंगे । डॉक्टरो से परीक्षा कराई (३) धन सचय करने का किमी को अविभी जाय तो रोगी-जिसमे मौके मौके पर सभी लोग कार न हो । पर क्या ये तीनो बाते सम्भव है ? क्या शामिल होते है-डाक्टरो की कृपा के भिखारी होगे। इससे शान्ति सुव्यवस्था और उन्नति हो सकती है ? रोगियो से डाक्टरो को कुछ मिल तो नही सकता पहिले समान आमदनी की बाते लेले । इस इसलिये उनके द्वारा उपेक्षा और तिरस्कार होगा। मे सब से वडी बाधा यह है कि प्रत्येक मनुष्य रोगियो मे दीनता आयगी । धीरे धीरे कृपावान् की योग्यता और सेवा एक सरीखी नहीं होती। और कृपोपजीवीका भेद बडे भयकर रूप मे न सभी सेवाओं का मूल्य एक सरीखा किया जा मनुष्यता का सहार करने लगेगा | यहा अभी सकता है । बर्तन मलने या झाडू देनेवाली एक सकेत मात्र किया है | विस्तार से अगर इसका मजदूरिन और नये नये आविष्कारो के लिये दिन चित्रण किया जाय तो उससे हम घबरा उठेगे। रात सिर खपानेवाला और प्राणो को भी दावपर कौटुम्बिक व्यवस्था को नष्ट कर देने का लगा देने वाला एक वैज्ञानिक, इन दोनो की अर्थ होगा मनुष्यता को तिलाञ्जलि देना । इससे सेवा एक सरीखी नहीं हो सकती। अगर सबकी दाम्पत्य की सुविधाएँ और आनन्द नष्ट हो जायगा सेवा का मूल्य एक सरीखा हो जाय तो मनुष्य अविकाश सन्तान वात्सल्यहीन रहेगी और उसमे अधिक से अविक काम करने के बदले कम से हृदय हीनता आ जायगी। पुरुप नयी नयी नारियो कम काम करने की ओर झुकेगा । न तो योग्यता की तलाश मे और नारी नये नये पुरुपो की बढाने की तरफ उसका व्यान जायगा न योग्यता तलाश मे सदा व्यस्त रहने लगेगे, सारा राष्ट्र एक का अविक उपयोग करने की तरफ । इसलिये प्रकार का वेश्यालय बन जायगा । इसलिये कैंटु- सब मनुष्यों की आमदनी एक सरीखी नहीं हो म्विक व्यवस्था को नष्ट कर देना अत्यन्त अकल्या- सकती । हा, यह हो सकता है और होना णकर है । सच पूछा जाय तो यह साम्यवाद का चाहिये कि आमदनी मे जमीन आसमान का कल्पना चित्र है, स्वप्न है । जहा साम्यवाद का अन्तर न हो । एक आदमी पाच रुपया महीना प्रचार हुआ वहा भी कौटुम्विक व्यवस्था तोड़ी पाये और दूसरा दस हजार या बीस हजार रुपया नहीं गई । विवाह बन्धन ढीला किया गया और महीना । यह अन्धेर जाना चाहिये । अन्तर रहे काफी ढीला किया गया पर इससे कौटुम्विक पर वह आवश्यक और उचित हो । अन्तर रहना व्यवस्था नष्ट नहीं हुई और यह ढीलापन छोड देना अनिवार्य है । इस बात को साम्यवादी भी स्वीकार पडा, इसलिये कौटुम्बिक व्यवस्था को नष्ट करता है । इस प्रकार जब आमदनी मे अन्तर है तत्र कर देने की बात व्यर्थ है। पूर्ण आर्थिक साम्यवाद नही हो सकता।

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