Book Title: Nirtivad
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satya Sandesh Karyalay

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Page 12
________________ ८] निरतिवाद जिस समय मनुष्य वन्य-जीवन से निकल कराता किसी से पैर दबवाना, हवा कराता इस प्रकार कर सामाजिक जीवन मे आया उसने भौतिक सेवा लेकर वह सम्पत्ति समाज को दे देता । विज्ञान का पाठ पढा समाज रचना की व्यवस्था अगर दान करता तो भी दे देता। इस प्रकार बनाई सुव्यवस्था के लिये कार्य का विभाग किया उसकी विशेप सेवा का बदला भी मिल जाता निश्चिन्तता के लिये कुछ बचाना और रक्षित रखना और समाज की भी हानि न होती उसकी सपत्ति सीखा तभी से समाज मे धन सग्रह और आर्थिक सब जगह बटकर सबको जीवित और सुखी रखती। विषमता आई। मनुष्यो मे स्वाभाविक विषमता परन्तु सम्पत्ति का यह अधिकार जीवन होने से आर्थिक विषमता स्वाभाविक थी पर इस पर्यन्त के लिये ही न रह सका वह वश परम्परा का मूलरूप संग्रह नही भोग था । जो अधिक के लिये पहुंचा । मैने जो सेवा करके सम्पत्ति बुद्धिमान और अधिक श्रमी थे वे अपने कीमती जोडी उसका मुझे अपने जीवन मे ही दान या और अधिक कार्य का अविक मूल्य मांगे यह भोग कर लेना चाहिये था पर जब मैने वह स्वाभाविक था । समाज दो तरह से उसका मूल्य सम्पत्ति अपने वेटेको देदी तब समाज को पक्का चुका सकता था । एक तो यह कि उसने जितना लगा । समाज ने तो वह सम्पत्ति या जीवनअधिक और कीमती काम किया है उसके अनुसार सामग्री तुम्हे तुम्हारी सेवा को प्रमाणित करने के लिये एक प्रमाण पत्र के रूप मे दी थी । समाज उसकी अविक सेवा की जाय और भोगोपभोग को आशा यी कि तुम अपनी सेवाके बदले मे की कीमती सामग्री दी जाय । जैसे उसको प्रतिसेवा लेकर वह सम्पत्ति वापिस कर दोगे । स्वादिष्ट भोजन मिले, रहने के लिये अच्छा स्थान पर तुमने विश्वासघात करके वह सम्पत्ति वापिस मिले, कोई पगचपी करदे मालिश करदे इत्यादि । न करके अपने बेटे को दे दी। और समाज को दूसरा यह कि उससे दूसरे दिन काम न लिया उतने अश मे द खी होना पडा । यही है सग्रहजाय और पहिले दिन की सेवाके बदले मे ही उसे कती की पापता ।। दूसरे दिन भी भोगोपभोग की सामग्री दी जाय । कहा जा सकता है कि उस समयमे जब इन दो आधारो पर ही विनिमय या लेनटेन चलने कि धन अनाज आदि जीवन सामग्री के रूप मे लगा । किसी तरह किसीने अपनी एक दिन की रहता था सग्रह करना अवश्य पाप या । परन्तु सेवा को चार दिनके जीवन निर्वाह के योग्य रुपये पैसे के रूप मे वन सग्रह मे क्या पाप है समझा किसीने आठ दिनके । इस प्रकार वे लोग क्योकि यह जीवन-सामग्री नहीं है। सामग्री का सग्रह करने लगे । अगर यह सग्रह परन्तु रुपयो पैसो का सग्रह करना और जीवन भरके लिये होता तब जीवन सामग्री का सग्रह करना एक ही बात है । तो ठीक था । जीवन के अन्त तक या तो वह क्योकि जीवन सामग्री को रखने और उसे प्राप्त सारी सामग्री भोग डालता या दान मे दे देता करने का उपाय रुपया पैसा ही है । रुपया पैसा दोनो ही दृष्टि से समाज का लाभ था। क्योकि रोक लेने से जीवन सामग्री आपसे ही रुक जाती अगर भोगता तो वह सारा अन्न खा तो नहीं सकता है। इसलिये रुपयो पैसो के बहाने से परिग्रह या । वह तो उसको देकर किसी से मालिश क्षम्य नही हो सकता ।

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