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पूँजीवाद पापरूप एक चोर पडौसी की चोरी करले तो भी देश का हू इसलिये पूजा करता है । पर वह आदर्श है, दिशापमा देश में रहेगा इसीलिये इन सब का समर्थन दर्शन करा सकता है पर अप्राप्य है । इसलिये नहीं किया जा सकता । इस तर्क मे दूसरा दोप व्यवहार की चीज नहीं है। यह भी है कि पैसे की दृष्टि से.महंगाई का दोष हा, व्यवहार मे भी कभी कभी उसका उपभले ही न हो पर परिश्रम की दृष्टि से तो है योग हुआ है या हो सकता है पर वह झाडू की ही । कोई चीज महँगी पडी इसका यह अर्थ तरह ही हो सकता है । कमरे मे अगर कचरा पडा अवश्य है कि उसमे बहुत से मनुष्यो को बहुत परि- हो और बैठने को जगह न हो तो झाडू लगा कर श्रम करना पड़ा । इस प्रकार सरकार के हाथ मे कचरा साफ किया जा सकता है साफ जगह जो कारवार जाता है वह अविक शक्ति लेकर निकाली जा सकती है पर इसीलिये झाडू बैठने पूरा होता है । फिर भी बहुत से काम ऐसे है कि के लिये उपयुक्त आसन नहीं हो जाता । सफाई व्यक्ति के हाथसे हो नहीं सकते इसलिये महँगे करके उसे भी अलग कर देना पडता है । पूँजीवाद पडने पर भी सरकार के हाथसे कराना पडते के द्वारा जब विपमता का कचरा फैल जाता है तब है । रक्षण न्याय आदि ऐसे ही कार्य है। साम्यवाद की झाडू से सफाई की जा सकती है पर __परन्तु यदि प्रत्येक मनुष्य का धधा रोगार भी बाद मे वह साम्यवाद भी हट जाता है। सरकारी हो जाये इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य की कभी कभी ऐसी भी परिस्थिति आती है आजीविका का बोझ सरकार के ऊपर पड़े तो जहा झाडू काम नहीं करती या उसकी जरूरत वह बोझ कितना भारी होगा ? कितना मॅहगा नहीं मालूम होती वहा दूपरी तरह के साधनो का होगा ? उसकी कल्पना ही मुश्किल से की जा उपयोग किया जाता है । भारतवर्ष की परिस्थिति सकती है।
अभी ऐसी ही है-यहा का इलाज निरतिवाद से अभी अभी जहा साम्यवादी शासन प्रचलित ही हो सकता है । हुआ है वहा भी प्रत्येक व्यक्ति का बोझ सरकार
पूँजीवाद पापरूप नही उठा सकी और धीरे धीरे सरकार ने लौटना
साम्यवाद अव्यावहारिक हो करके भी शुरू कर दिया है । व्यक्ति की आजीविका व्यक्ति निष्पाप है जब कि पूंजीवाद व्यावहारिक होकर के हाथ मे रखने की बहुत कुछ स्वतन्त्रता देना पडी।
भी पाप है,। पूँजीवाद का अत्याचार यह है कि है । और इसी लौटनेकी दिशामे प्रगति हो रही है। उसमे सेवाके बदले मे धन नहीं मिलता वल्कि
व्यवहार मे आने पर और भी कठिनाइयाँ धनीको मुफ्त मे धन मिलता है। इस प्रकार दिखाई दे सकेगी। सबसे बड़ा प्रश्न मानव स्वभाव बिना किसी सेवा के धनियों का वन वढता जाता
और प्राकृतिक विपमता का है इससे साम्यवाद है और सेवा करने पर भी निर्वनो की निर्धनता स्थायी नहीं हो सकता। जब वह स्थायी होने वढती जाती है । इस प्रकार एक तरफ आवलगता है तब पूँजीवाट की ओर काफी झुकने श्यकता से अधिक धन और दूसरी तरफ किसी लगता है। फिर भी मै साम्यवाद को घृणा की तरह पेट भरने के लिये भी मुहताजी, ऐसी दृष्टि से नहीं देखता । मै तो उसे आदर्श समझता असह्य विषमता पैदा हो जाती है ।