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निरतिवाद
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तो मै [ समाज ] क्या करू ? व्यक्ति इस सचाई को मान कर चुप रहता है । वह किसी को दोष न देकर अपने भाग्य का फल समझ कर चुपचाप काम करता है । उठने की कोशिश करता है पर यदि नहीं उठ पाता तो वह समाज पर टूट नही पडता । क्योकि जिम्मेदारी समाज पर नहीं उस पर है । साम्यवाद मे समाज पर ही सारी जिम्मेदारी आ जाती है व्यक्ति बहुत गौण हो जाता है ऐसी हालत मे वह लघुता सहन नहीं कर सकता। हम घर मे कैसा भी रूखा मूखा खा सकते है परन्तु निमत्रण मे जाने पर घर से अच्छा भोजन करके भी हम उस हालत मे सतुष्ट नही हो सकते जब कि दूसरे को हम से अच्छा भोजन परोसा जा रहा है । साम्यवाद मे कोई भी छोटा बनने को तैयार न होगा और होगा तो उसे अन्याय का कडुआ अनुभव होता ही रहेगा । असन्तोप और ईर्पा जीवन को दुखी करने के साथ दूसरो को भी दुखी बनाये रहेगी । अगर सरकार साम्यवाद का दावा न करे न आर्थिक सूत्र सीधे अपने हाथ मे रक्खे तो व्यक्ति अपनी परिस्थति मे बहुत कुछ सन्तुष्ट रहेगा । न अधिकारियो को उसके जीवन के दुरुपयोग करने का इतना अवसर मिलेगा न उसे अधिकारियो पर इतना रोष होगा ।
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सरकार के ऊपर रक्षण, शिक्षण, न्याय, नियन्त्रण कर - ग्रहण आदि का जो बोझ है वह कुछ कम नही है । सरकार कोई एक व्यक्ति न होने से उसके द्वारा जो कार्य होते है उन पर व्यवस्था सम्वन्धी बहुत खर्च बढ जाता है । मै एक मकान बनवाऊँ और सरकार भी वैसा मकान बनवाये तो उसमे ग्वर्च दूने से भी अधिक आयगा । इसका कारण यह हैं कि आधे से अधिक पैसा व्यवस्था
मे खर्च हो जाता है | मजदूरो की देखरेख को एक निरीक्षक चाहिये । निरीक्षक कोई बेईमानी न करे इसके लिये एक चेकर चाहिये, काम ठीक हुआ कि नही हुआ इसलिये इजीनियर चाहिये, हिसाब ठीक है कि नही इसके लिये ऑडीटर चाहिये, ढेर भर कागज फाडले और उस को गूढने के लिये क्लर्क चाहिये । इन सब कारणो से सरकारी काम बहुत महँगा पड़ता है । इसलिय ठेका देने का रिवाज है । ठेके का काम सस्ता पडता है लेकिन ठेकेदार पर नियन्त्रण और परीक्षण के लिये भी काफी खर्च होता है। 1 और ठेका भी वास्तविक मूल्य से अधिक में दिया जाता हैं । यह बात इसीसे समझी जा सकती है कि ठेकेदार अधिकारियो को हजारो रुपयोकी रिश्वत देकर भी लखपति बन जांत है I
कहा जा सकता है कि ये उदाहरण किसी बिगडी हुई सरकार के नमूने है साम्यवादी सर - कार ऐसी नहीं हो सकती ।
ठीक है । माना कि ऐसी नहीं हो सकती सम्भवत प्रारम्भ मे ऐसी नही हो सकती, पर दस बीस वर्षो के बाद वहा भी ऐसी ही परिस्थिति आ जायगी अथवा अन्तर रहेगा तो उन्नीस बीस जैसा ही रहेगा । बात यह है कि जबतक मनुष्य अपने व्यक्तित्व का अनुभव करना नही भूलता व्यक्तित्व की महत्त्वाकाक्षा नष्ट नहीं होती तबतक उपर्युक्त उदाहरण हरएक सरकार मे मिलेगे । हा, उनकी मात्रा मे थोडा बहुत अन्तर अवश्य आ सकता है ।
दूसरी बात यह कही जा सकती है कि अच्छा महँगा पड़ता है तो पडने दो देश का पैसा देश मे तो रहता है । परन्तु यह तर्क ठीक नही । पूँजीवाद मे भी देश का पैसा देश मे रहता है,