Book Title: Nirtivad
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satya Sandesh Karyalay

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Page 13
________________ पूँजीवाद पापरूप इस प्रकार लोगोने अनिर्दिष्ट काल के लिये जीवन सामग्री रोक कर जहा विश्वासघात किया हा समाज के व्यक्तियो के संकट का दुरुपयोग करके एक और अनर्थ किया । सम्पत्ति एक तरफ रुक जाने से दूसरे लोगो का जीवन-निर्वाह कठिन हो गया । उनने यह सोचकर कि आज कही से लेकर काम चलाओ कल फिर किसी तरह उपार्जन करके ढेढेगे । इस विचार से वे लोग यो के पास उवार मॉगने आये । पर धनियोने कहा कि ले जाओ पर हम दसके बदले ग्यारह लेगे । यह शर्त मंजूर हो तो हम देते है नही तो हमे क्या गर्ज पडी कि हम तुमको उबार दे 1 इस प्रकार धन- संग्रह करके विश्वासघात किया था सो तो किया ही था अब दूसरा पाप यह होने लगा कि बिना सेवा दिये ही धन प्राप्त करना शुरू कर दिया गया । व्याज खाना इसीसे पाप है । आज हम यर लेकर, अपनी चीज भाडे देकर, तथा अन्य उपायों से जो बिना परिश्रम के धन पैदा करते है वह सब व्याज है मुफ्तखोरी है, दूसरो की गरीबी बढाने वाला है दूसरे के सकट का दुरुपयोग करने से निर्दयता है । इन कारणो से पाप है । प्राय सभी धर्मों मे परिग्रह को जो पाप कहा गया है इसका यही कारण है । इसी का नाम पूँजीवाद है । अर्थात् अनिर्दिष्ट काल के लिये या वंशादिपरम्परा के लिये पूँजी पर अधिकार रखना और किसी न किसी तरह व्याज खाना यही पूँजीवाद है । इसके सहारे से और भी बहुत से अनर्थ तथा वेईमानिया पैदा होती है । अपनी साधारण व्यवस्था शक्ति को बहुमूल्य बताना, मनमाना पारिश्रमिक लेना ये सब पूँजीवाद के साथ रहने वाले अनर्थ है । इस पूँजीवाद ने ही जहा इनेगिने 1 | [ ९ कुबेर पैदा किये है वहा करोडो भिखमंगे और कगाल पैदा किये है | नव्बे फीसदी मनुष्य आज पूँजीवाद के चक्रमे पिसकर मनुष्यता खोकर पशुजीवन बिता रहे है । इसलिये आवश्यक है कि समाज की शान्ति सुख के लिये मौलिक नियमो के पालन के लिये सबके साथ न्याय करने के लिये पूँजीवाद दूर कर दिया जाय । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर, एक दल दूसरे दल पर, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर जो टूट रहा है उसे शिकार बना रहा है उसका कारण यह पूँजीवाढ है । पूँजीपति इतना बुरा नही है जितना कि पूँजीवाडी बुरा है । पूँजीपति वह मनुष्य है जो पूँजी रखता है । पर पूँजीवादी वह है जो सम्पत्तिको सदा के लिये रखना चाहता है और पूँजी के वलपर उसे बढ़ाना चाहता है । मानव-जीवन मे सग्रह की आवश्यकता तो है ही । प्रतिदिन कमाना और प्रतिदिन खर्च कर डालने की व्यवस्था किसी को भी सुखकर या सुविधाजनक नहीं हो सकती । एकाध को हो भी जाय तो बात दूसरी है पर साथ ही उसे दूसरो का ज्ञात या अज्ञात भरोसा रखना पडता है | जनता इसका पालन नहीं कर सकती । इसलिये संग्रह अनिवार्य है । पर सग्रह से सग्रह को न वढाया जाय, वह अनिर्दिष्ट काल के लिये न किया जाय, यथा-सम्भव सग्रह की मात्रा कम हो, अधिक हो जाने पर ढारमे लगा दिया जाय इन सब परिस्थितियो मे मनुष्य पूँजीपति तो हो सकेगा पर पूँजीवादी न हो सकेगा । किन किन परिस्थितियो मे किस तरह मनुष्य धन का सग्रह करते हुए भी पूँजीवादी न कहला सके इसके लिये कुछ दिशासूचक नियम दे देना उपयोगी होगा।

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