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इक्कीस सन्देश
इक्कीस सन्देश
'सत्यसमाज की मॉगे' इस शीर्षक से जो इक्कीस सन्देश जनता के सामने रक्खे गये थे उन पर बहुत से विद्वान और समाचार पत्रोका ध्यान गया है । कुछ विद्वानो ने कुछ मतभेद भी प्रगट किये है । मै उनकी यहा अक्षरग आलोचना नही करना चाहता । फिर भी उनकी आलोचनाओ पर ध्यान देकर जो कुछ बदलने लायक मालूम हो उसे बदलना, और जिनका खुलासा करना जरूरी हो उनका खुलासा करना आवश्यक समझता हू । इसलिये यहा प्रत्येक सन्देश का सुधरा हुआ रूप और उसका माष्य किया जाता है ।
सत्यसमाज हरएक बात पर निरतिवाद की दृष्टि से विचार करना चाहता है । वह किसी भी दिशा मे इस प्रकार अति नही करना चाहता कि वह तत्त्व कल्याणकर होने पर भी अतिमात्रा मे होने के कारण अकल्याणकर बन जाय । अच्छी से अच्छी चीज भी अगर अधिक मात्रा मे हो जाय । अपनी मर्यादा भूल जाय तो अकल्या
कर हो जाती है । जिस प्रकार अँधेरा आखो को काम कर देता है । उसी प्रकार तीव्र प्रकाश की चकाचौध भी आँखो को बेकाम कर देती है इसलिये अतिअधकार और अतिप्रकाश दोनो ही अकल्याणकर है । कल्याणकर है निरति = अति का अभाव |
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सत्य समाज के इक्कीस सन्देश किस आशय को लेकर है और निरतिवाद की कसौटी पर कसे जाकर वे किस रूप मे व्यावहारिक बन सकते है इसी बात का दिग्दर्शन मुझे यहां कराना है । सन्देश पहिला
सब मनुष्य अपने को मनुष्य जाति का ही माने । रग, देश, व्यापार, कुलपरम्परा आदि के भेद से जातिभेद न माना जाय, अर्थात् इन कारणो से रोटी बेटी व्यवहार सीमित न रक्खा जाय । न कोई जाति के कारण ऊँच नीच छूत अछूत आदि समझा जाय ।
भाष्य -- जातीयता की निशानी स्वाभाविक दाम्पत्य है । जहा विनातीयता होती है वहा स्वाभाविक दाम्पत्य नही होता जैसे हाथी घोडा ऊँट आदि जानवरो मे स्वाभाविक दाम्पत्य नही है इसलिये हम हाथी घोडा आदि को एक एक जाति कह सकते है । परन्तु मनुष्यो के भीतर जो जातिभेद की कल्पना की गई वह ऐसी नहीं है उस मे ऐसा आकारभेढ या शरीरभेद नहीं है कि हम भारतीय और अग्रेज को आर्य और मगोलियन को ब्राह्मण और शूद्र को भिन्न भिन्न जाति का कह सके । इन मे परस्पर दाम्पत्य हो सकता है वापरम्परा चल सकती है इसलिये मनुष्य मात्र को एक जाति का समझना चाहिये ।