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१२. नैगम नय
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३. भूत र्वतमान व
भावि नैगम नय अर्थ- देव होने से पहिले भी, छद्मस्थ रूप मे विद्यमान मुनि
को देव रूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है । वास्तव मे तो देव ही गुरु है। ऐसा भावि नैगम नय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष मे तो किसी भी प्रकार गुरु सज्ञा घटित होती नही ।)
इस प्रकार सर्वत्र' भाविकाल मे होने वाले कार्य को वर्तमान में या भूतकाल मे हो गया वत् कहा जा सकता है । परन्तु यत्र तत्र विवेक शून्य इस नय का प्रयोग करके जिस किसी को भी साधक या भगवान आदि कह देना योग्य नहीं । क्योकि ऐसा करने से प्रयोजन की सिद्धि होने की बजाये उल्टा ही फल कदाचित हो सकना सम्भव है। जैसे कि ज्ञान शून्य धार्मिक क्रियाये करने वाले को वर्तमान मे ऐसा कहना योग्य नही कि मेरी यह व्यवहारिक क्रियायें भावि नैगम नय से परम्परा मोक्ष का कारण है, क्योकि ज्ञान शून्य उन क्रियाओ मे मोक्ष की साधक शक्ति का अभाव है । अत भावि नैगम नय का प्रयोग वहां ही करने मे आता है जहा कि भविष्यत कालीन कार्य का कोई अश वर्तमान मे प्रगट हो चुका हो, या भविष्यत मे वैसा फल होने का निश्चित हो गया हो। निश्चय अर्थ मे ही भावि नैगम का प्रयोग होता है जैसा कि निम्न उद्धरणों से प्रगट है।
१. ध.।१।१८१।४ शंका- अक्षपकानुपशयकाना कथं तद्
(क्षायिक औपशमिकभावाना) व्यपदेशञ्चेत?
उत्तर:- न, भाविनि भूत वदुपचारतस्तत्सिद्धे शंका - सत्येवमति प्रसङ्ग स्यादिति चेत् ? उत्तरः-- न, असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्र मोह
क्षपणोपशमकारिणा तन्दुन्मुखानामुपचार भाजामुप लम्भात् ।