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२० विशुद्ध ग्रध्यात्म नय
ज्ञेय के उपचार के बिना ज्ञान को ही ज्ञान कहता है इसलिये अनुपचार है । ज्ञान जीव का अपना गुण है इसलिये सद्भूत है और गुणगुणी का भेद ग्रहण करता है इसलिये व्यवहार है । इस प्रकार 'अनुतचरित सद्भुत व्यवहार नय' यह नाम सार्थक है । ज्ञेय के अवलम्वन के बिना ज्ञान का स्वरूप दर्शाना अशक्य है इसलिये ज्ञान मे ज्ञेय का उपचार करने में आता है । क्योंकि ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञान ज्ञान ही रहता है ज्ञेय नही हो जाता, फिर भी उसे ज्ञेय का ज्ञान कहने में आता है इसलिये यह नय उपचरित है । ज्ञान जीव द्रव्य का अपना गुण है इसलिये सद्भूत है और गुण- गुणी का भेद ग्रहण करने के कारण व्यवहार है । इस प्रकार 'उपचरित सद्भुत व्यवहार नय' यह नाम सार्थक है । यह तो इस नय का कारण है । द्रव्य के अस्तित्व की प्रतीति करना अनुपचरित सद्भूत व्यवहार का प्रयोजन है और ज्ञान ज्ञेय के सकर दोष का निवारण करते हु का अविनाभावीपना दर्शाना उपचरित सद्भूत व्यवहार नय का प्रयोजन है अथवा ज्ञेय का अवलम्वन छुड़ा कर ज्ञान मात्र का अवलम्वन कराना अर्थात ज्ञाता दृष्टा भाव मात्र जागृत कराना इन दोनों नयो का एक प्रयोजन है ।
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६. असद्भूत व्यवहार
नय का सामान्य
जैसा कि पहले ही विशुद्ध अध्यात्म पद्धति का परिचय देते ६ असद्भूत व्यवहार समय बताया जा चुका है जीव पुगद्ल इन दो नय सामान्य द्रव्यो मे वैभाविक नाम की विशेष शक्ति है जिसके कारण इनका परिणामन कथञ्चित निज पारिणामिक भाव के साथ तन्मय उसके अनुरूप भी होता है और कथञ्चित पर पदार्थों के साथ तन्मय उनके अनुरूप भी होता है । पहले वाले परिणमन को स्वभाविक और दूसरे वाले को विभाविक कहा जाता है । ज्ञान की 'ज्ञान क्रिया' जीव का स्वभाविक भाव है और उसकी क्रोध आदि भाव रूप या राग द्वेषादि रूप 'कर्त्ता क्रिया' विभाविक भाव है । इसीप्रकार परमाणु व उसकी शुद्ध पर्याय पुगद्ल के स्वभाविक भाव है और स्कन्ध व उसकी